उपन्यास >> शोध शोधतसलीमा नसरीन
|
7 पाठकों को प्रिय 362 पाठक हैं |
तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास
बहरहाल, उस वक़्त मैंने चाय के पानी में अदरख कतरकर डाल दिया और बावर्चीख़ाने की खिड़की के सामने जा खड़ी हुई। इस खिड़की के बग़ल में मकान के नितम्ब के अलावा और कुछ नज़र नहीं आता। नितम्ब की डोरी पर धूप में सुखाए जाने वाले कपड़े सूख रहे थे। चारों तरफ़ लाल, नीले, पीले रंगों की बहार छाई हुई थी! अफ़ज़ल के रंगों की तूलिका देख आने के बाद, मेरे मन पर भी रंग चढ़ गया है! बग़ल के मकान की डोरी पर फैले हुए कपड़ों के रंग पर, और दिन भले मेरी नज़र न जाती, लेकिन इस वक़्त वे रंग मेरी आँखों में समा गए। सोहेली फूफी ने बैंजनी रंग की साड़ी पहनी थी। कुमुद फूफी गहरे हरे रंग की साड़ी में थीं। हरे रंग की साड़ी के साथ काले रंग का ब्लाउज़! अगर वे काला ब्लाउज़ न पहनकर, सफ़ेद ब्लाउज़ पहनतीं, तो उन्हें ज़्यादा सूट करता। हरी साड़ी के आँचल के लाल-लाल बूटे से मिलती-जुलती, माथे पर एक बिन्दी भी लगा सकती थीं।
जिस वक़्त मैं अकेली-अकेली ही रंगों की रंगीनी में डूबी हुई थी, चाय के रंग की तरफ मुग्ध निगाहों से देख रही थी, सासजी ने आवाज़ दी, 'क्या हुआ, वहू? चाय बनने में इतनी देर क्यों लग रही है?'
वाकई, चाय बनाने में मुझे इतनी देर क्यों हो रही है?
इतनी देर तो मैं कभी नहीं लगाती। मैं इस घर की आखिर लक्ष्मी-बहू ठहरी! जब, जिसको, जो भी ज़रूरत हो, ठीक वक़्त पर मुझे हाज़िर करना चाहिए।
सोहेली फूफी खुद बावर्चीखाने में चली आईं। मैंने प्यालियों में झटपट चाय उड़ेली और उन्हें ट्रे में सजाकर, हाथ में उठा लिया। चाय ट्रे में छलक पड़ी।
सोहेली फूफी ने मेरे हाथ से ट्रे ले ली और फुसफुसाकर कहा, 'पेट में बच्चा है क्या?'
'ना-' पल-भर में, मारे शर्म के मैं लाल हो उठी।
सोहेली फूफी ने चाय की ट्रे सासजी और कुमुद के सामने रख दी और अपनी प्याली हाथ में उठा ली।
वे मुझे खींचकर कॉरीडोर के कोने में ले गईं और फुसफुसाकर पूछा, 'कोई खुशखबरी क्यों नहीं है, भई?'
'कैसी खुशखबरी?'
'अरे, वाह, समझ में नहीं आया?'
मैं सिर झुकाए खड़ी रही। मेरा भी चाय पीने को मन हो आया। लेकिन सोहेली फूफी की बातें, बीच में काटकर, मैं अपनी चाय की प्यास का जिक्र भी नहीं कर सकती। ऐसा करना बेअदबी होती।
'अब, जल्दी से बच्चा जन दो। जब तक औरत माँ नहीं बनती, उसकी ज़िन्दगानी का कोई मतलब नहीं होता।"
|