उपन्यास >> शोध शोधतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास
16
हारुन इन दिनों अक्सर अपने दफ्तर से गैरहाजिर रहने लगा है। वह अक्सर मुझे डॉक्टर के यहाँ ले जाता है, हवाखोरी के लिए चन्द्रिका पार्क ले जाने लगा है। कभी-कभी खाना खाने के लिए रेस्तराँ वगैरह ले जाता है। यही पेट लेकर, एक दिन मुझे सोहेली फूफी के यहाँ दावत पर भी जाना पड़ा। डॉक्टर ने हिदायत दी है कि थोड़ा-बहुत चलना-फिरना अच्छा है। उन्होंने आराम करने को भी कहा है। आराम के लिए, मुझे बिस्तर पर लिटाकर, हारुन का एकमात्र काम होता था, मेरे पेट पर इत्मीनान से कान लगाकर, मेरे कोख में पलते बच्चे की साँसें और धड़कन सुनना।
बच्चे की धुकपुक सुनते ही, वह इस क़दर उत्तेजित हो उठता था कि मेरा समूचा पेट चूमते-चूमते, मेरी कोख़ के बच्चे से बातें करने लगता था, 'क्या, जी, बाबू सोना, छुटकू सोनामणि, मैं तुम्हारा बाप हूँ! तुम्हारा अब्बू!'
मैं हँस पड़ी।
'क्या बात है, हँस क्यों रही हो?'
'बच्चे को अभी से बता दिया कि तुम उसके अब्बू हो?'
हारुन का चेहरा ख़ुशी से गद्गद! बेहद ख़ुश-खुश चेहरा! हाँ, वह अभी, इसी दम बता देना चाहता है। वह तो दिन गिन रहा था। दरअसल वह घंटे, मूहूर्त गिन रहा था कि कब वह बच्चे का मुँह देखेगा।
वह अभी से बच्चे के लिए बिस्तर-तकिया, कपड़े-लत्ते, तेल-साबुन-तौलिया, दूध की बोतल, दूध-सारा कुछ ख़रीद लाया है। बच्चे के खिलौनों से तो सारा घर भर डाला है।
'बोलो, तुम्हें क्या चाहिए? बोलो?' हारुन ने बेहद आवेग़भरी आवाज़ में पूछा।
बहरहाल, मुझे मालूम है कि मैं जो चाहती हूँ, वह देने का सामर्थ्य हारुन में नहीं है। फ़िलहाल, मैं अपने माँ-बाप को देखना चाहती हूँ।
हारुन ने मेरे माँ-पापा को अपने यहाँ आने का न्योता दे डाला। अपने सास-ससुर के लिए बाजार से थैला भर तर-तरकारी खरीद लाया। घर में पकवान बनाने की तैयारी चल रही है। हारुन वारी जाकर, मेरी माँ-पापा के अलावा, नूपुर को भी लिवा लाया। मेरा सुख उमड़ा पड़ रहा है। माँ से लिपटकर, मैं माँ की देह की ख़ुशबू लेती रही। जानी-पहचानी ख़ुशबू! मेरा मन हुआ, उस ख़ुशबू में डूबी-डूबी में बच्चे की तरह सो जाऊँ! मेरा मन हुआ, नूपुर के साथ, वचपन के खेल की तरह, गुलाब-कमल का खेल खेलूँ। लेकिन, न सोने का संयोग बना, न खेलने का मौक़ा मिला। हर किसी की नज़र मेरे उभरे हुए पेट पर गड़ गई।
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