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श्रंगार - प्रेम >> निमन्त्रण

निमन्त्रण

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :119
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7958
आईएसबीएन :9789350002353

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तसलीमा नसरीन का यह उपन्यास निमन्त्रण शीला और उसके सपनों का पुरुष प्रेमी मंसूर की कहानी है।...

निमन्त्रण

 

मेरा नाम शीला है वैसे शीला पुकार का नाम है। भला नाम- तहमीना अख्तर। आजकल मैं, मंसूर नामक, एक नौजवान की मुहब्बत में पड़ी हूँ। मंसूर को मैंने पहली बार, गीतों के एक जलसे में देखा था। वह काफ़ी दौड़-धूप कर रहा था। मेरी निग़ाह लगातार उस पर गड़ी हुई थी, क्योंकि वह उस जलसे में सर्वाधिक सुदर्शन मर्द था। मुझमें यह एक बुरी आदत है कि खूबसूरती की तरफ़ से मैं सहज ही नज़रें नहीं फेर पाती।

मंसूर की तुलना में मैं कहीं से भी सुन्दर नहीं हूँ। मेरे बदन का रंग काला है। लोगों का कहना है कि 'काली होते हुए भी चेहरा प्यारा है।' प्यारे चेहरे से क्या मतलब है, यह आज भी मेरी समझ में नहीं आता। मेरी लम्बाई पाँच फ़ीट, दो-ढाई इंच होगी। चेहरे का गढ़न पान के पत्ते जैसा, आँखें बड़ी-बड़ी, सुतवां नाक, नरम-चिकने होट, नितम्ब पर मुटापे की चर्बी भी नहीं है। कोई मेरी सेहत ख़राब बताता है, कोई ठीक-ठाक बताता है। वैसे मैं शरीर-स्वास्थ्य, चेहरे-मोहरे या आँखों के बारे में गहराई से कभी, कुछ नहीं सोचती। लेकिन मंसूर को पहली बार देखते ही, घर लौट कर, मैं आइने के सामने जा खड़ी हुई। अपने को निहारती रही। अपने काले रंग के लिए मन-ही-मन दुःखी हुई। माथे पर कटे का एक छोटा-सा दाग़ था, वह देख कर भी अर्से बाद मुझे अफ़सोस हुआ। उस दिन मंसूर से मेरी कोई बात नहीं हुई, उसने एक बार भी मेरी तरफ़ नज़र उठा कर नहीं देखा, लेकिन घर में आईने के सामने, मैंने उसे अपनी बग़ल में ला खड़ा किया। उसकी ज़बान से मैंने यहाँ तक कहलाया-'तम तो खासी सुन्दर हो।'

गीतों की वह महफ़िल मृदुल के घर में जमी थी। मृदुल चक्रवर्ती! मृदुल मेरे भइया का दोस्त है। उस महफ़िल से लौटने के बाद पूरे सात दिन गुज़र गये। इन कई दिनों में मैंने काग़ज़ पर मंसूर का नाम कम-से-कम पाँच-छह सौ बार लिख मारा। मेरी परीक्षा बिल्कुल क़रीब थी, लेकिन किताब ले कर बैठते ही, किताब-कॉपी, हथेली पर बार-बार मंसूर का नाम ही लिखती रही। यह सब मेरे चेतन में घट रहा था या अवचेतन में, मुझे सच ही समझ में नहीं आता।

एक दिन मृदुल'दा मेरे घर आये। मैंने उन्हें अपने ड्रॉइंगरूम में बिठाया। उनके लिए खुद चाय बना कर ले आयी। कैसे हैं? गाना वगैरह कैसा चल रहा है? वगैरह-वगैरह दो-चार सवालों के बाद, मैंने असली सवाल पूछ डाला।

'वह लड़का कौन था, जी? उस दिन आप लोगों के गाने की महफ़िल में मौजूद था? लम्बू-सा, देखने में गोरा, बेहद सुन्दर-सा चेहरा... बदन पर नीली शर्ट, सफ़ेद पैंट! कौन था वह लड़का?'

मृदुल'दा ने चाय की चुस्की भर कर कहा, 'वा-ह! चाय तो बहुत अच्छी बनी है। तूने बनाई?'

'हाँ!'

'तेरी पढ़ाई-लिखाई कैसी चल रही है?'

'चल रही है! ठीक ही चल रही है! उस दिन महफ़िल ख़ासी जम गयी थी, है न मृदुल'दा? अब वैसी मज़लिस, दुबारा कब लगेगी?'

'देखता हूँ! फुर्सत कहाँ है, बता? नौकरी-चाकरी करूँ या गाना-बजाना?'

'सुना है, उस लड़के का नाम मंसर है?'

'ओ-हाँ! मंसूर है।'

चाय ख़त्म करके मृदुल ने सिगरेट सुलगा ली।

'फ़रहाद कहाँ है?' उन्होंने पूछा।

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