उपन्यास >> शोध शोधतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास
8
हारुन जब घर लौटा, तो उसके सामने खाना परोसकर, उसकी बग़ल में बैठना पड़ा।
मैंने बेहद शोक-विह्वल लहजे में पूछा, 'बहुत नुकसान हो गया न, जी?'
हारुन का चेहरा उसी तरह भारी बना रहा!
उसकी थाली में और दो टुकड़े गोश्त डालते हुए मैंने पूछा, 'यह अचानक...इतने सारे रुपए कैसे चौपट हो गए, जी?'
'तुम यह सब नहीं समझोगी-' हारुन ने सख्त लहजे में जवाब दिया।
हाँ, इसी तरह अबूझ और नासमझ बनी, मेरे दिन गुज़रते रहे।
हारुन जब घर लौटा, दोलन बग़ल के कमरे में बैठी-बैठी महीन आवाज में सुबक रही थी। मैं अचकचा गई। ठीक इसी वक़्त, दोलन रो क्यों रही है? सास जी हाथ में तस्वीह झुलाए, हारुन के सिरहाने आ बैठीं। उसके माथे पर फूंक मारते हुए, उन्होंने रानू से उसके लिए निम्बू का शरबत लाने की हिदायत दी। शरबत लाने को वह मुझसे भी कह सकती थीं, मगर उन्होंने रानू को शरबत लाने का हुक्म दिया। वैसे हारुन जब घर पर न हो, तब सभी घरवालों को शरबत पिलाने की जिम्मेदारी मेरी थी।
हारुन को शरबत पिलाकर, सासजी ने बेहद नरम आवाज़ में बात छेड़ी, 'हारुन के इस नुकसान पर, सबसे ज़्यादा दुःखी है-दोलन! अनीस तो जब से रुपए लेकर गया, तब से उसका कोई अता-पता नहीं है। कोई खोज-खबर भी नहीं दी कि वहाँ क्या चल रहा है? उसकी खबर भी तुझे ही लेनी होगी।'
दोलन, हारुन की इकलौती और सगी बहन है, यह बात हारुन को बखूबी याद थी, मगर उन्होंने दुबारा याद दिलाई।
हारुन के कारोबार में इतने बड़े धक्के के बाद, सासजी नमाज़ अदा करने में काफ़ी जोर-शोर से जुट गईं। नमाज के साथ फरज तो था ही। अब वे सुन्नत और नफ़र भी अदा करने लगीं। मैं हस्बेमामूल घर-गृहस्थी के धर्म निभाने लगी, उन्होंने मेरे कामकाज़ के धर्म के साथ, एक और धर्म सौंप दिया। मैं नियमित रूप से नमाज़ अदा करूँ और हारुन के लिए दुआ करूँ।
मैंने गर्दन खुजलाते हुए, जुबान काटकर कहा, 'नमाज़ तो मुझे...'
मैंने अपना वाक्य पूरा भी नहीं किया था कि मुझे नमाज़ पढ़ना ठीक तरह नहीं आता, इससे पहले ही सासजी कह उठीं, 'औरत होकर, नमाज़ नहीं पढ़तीं, यह कैसी बात?'
हारुन ने ख़ुद मेरी हतबुद्ध हालत देखी। मैंने उसकी तरफ़ भी असहाय नजरों से देखा। मुझे उम्मीद थी कि वह मुझे इस स्थिति से रिहाई दिलाने के लिए आगे बढ आएगा। वह घरवालों को समझाएगा कि नमाज पढने के लिए झमर से जोर-ज़बर्दस्ती करने की ज़रूरत नहीं है। लेकिन हारुन ने कुछ नहीं कहा। अगले दिन शाम को ही, अपने दफ़्तर के पिउन के हाथ, उसने नमाज-पाठ की एक पुस्तिका भेज दी। बस, उसी दिन से शुरू! अब मुझे सुरा की आयतें रटकर, अपनी सास जी के साथ पाँचों वक़्त के नमाज के लिए खड़ा होना पड़ता था।
भी खिलाया और उन्हें गर्व से बताया कि मेरे पापा विश्वविद्यालय में बड़े प्रोफेसर हैं। मैं पढ़े-लिखे खानदान की लड़की हूँ! बाप के पास ढेरों दौलत है। इस ढाका शहर में अपना निजी मकान होना, क्या कम बात है? बेटी भी पढ़ी-लिखी है!
कोई भी बाहरी व्यक्ति आ जाए, सासजी मेरे बारे में बढ़ा-चढ़ाकर बख़ान करती थीं। लेकिन जब मैं अकेले कमरे में उनके पके बाल चुनती थी, वे मुझे भी सुनाने से बाज़ नहीं आती थीं।
'तुम तो बहू, इस घर में खाली हाथ चली आई। हारुन के ब्याह की बात तो एक ब्रिगेडियर की लड़की के साथ चल रही थी। तुम्हारी जगह, अगर वह लड़की आती, तो इस घर में नए-नए सामान आते, फ्रिज, टेलीविजन, सोना-दाना...बहुत कुछ आता। बारह तोले सोना देने की बात, तय हो चुकी थी।'
'तो वह विवाह हुआ क्यों नहीं?'
'हारुन ही अड़ गया कि वह तुमसे ही विवाह करेगा। बेटे को रोकना, हमारे वश में नहीं था।'
दिन इसी तरह गुज़रते रहे।
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