उपन्यास >> शोध शोधतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास
मेरे उदय होते ही सासजी ने निर्देश दिया, 'इनके लिए चाय-शाय ले आओ, बहूरानी।
सोहेली फूफी ने मुझे आपादमस्तक रखते हुए कहा, 'चाय में अदरख ज़्यादा डालना।
सोहेली फूफी को अदरख-बिना चाय नहीं चलती, मुझे मालूम था।
एक बार जब मैंने उन्हें चाय बनाकर दी, उन्होंने कहा, 'अदरख बिना चाय, मुझे ज़हर लगती है।
मैं ज़रा ज़ोर से हँस पड़ी!
बस, सोहेली फूफी झुंझला उठीं, 'इसमें हँसने की क्या बात है?'
'लगता है, इससे पहले आपने ज़हर चखा है।'
'अरे! ज़हर क्या ख़ाना ज़रूरी है? ज़हर खाने में हद बुरा होता है, निरा बेस्वाद होता है, कड़वा होता है, इतना अन्दाज़ा तो लग ही जाता है।'
उस दिन, सोहेली फूफी की बात का मैंने कोई जवाब नहीं दिया, लेकिन मन-ही-मन यह ज़रूर कहा कि मुमकिन है, जहर बेस्वाद न भी होता हो, बल्कि काफ़ी लज़ीज़ भी हो सकता है। अफ़ीम अगर ज्यादा मात्रा में ले ली जाए, तो आदमी मर जाता है, लेकिन अफ़ीम खाकर बेहद सुख मिलता है। चिरैते का स्वाद कड़वा तो होता है. मगर यह सेहत के लिए काफी फायदेमन्द होता है. वैसे किसी-किसी बीमारी में कई-कई चीजें भी बिल्कुल ज़हर होती हैं। मेरी माँ को डायबिटिज़ है। पापा कहते थे कि माँ के लिए चीनी बिल्कुल ज़हर है। इधर पापा को हाई-ब्लडप्रेशर था। पापा के लिए नमक ज़हर था, धूमपान भी बिल्कुल ज़हर! मैंने गौर किया, जहर के प्रति माँ और पापा का असम्भव खिंचाव था।
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