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शोध

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3010
आईएसबीएन :9788181431332

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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास


जुबान से कुछ भी कहने का मौका नहीं मिला। अफ़ज़ल ने बताया कि वह मेरे बारे में अपनी भाभी की जुबानी काफ़ी कुछ सुन चुका है।

उसने क्या सुना है? यह सुना है कि घर की बहुरिया बेहद भली, बेहद लक्ष्मी है? और क्या सुना है उसने? ख़ास कुछ नहीं। ख़ास कुछ मैं हूँ भी नहीं।

'यही सुना है न कि बहुरिया बेहद भली है! बेहद लक्ष्मी-बहू? ससुराल में वह घर के सभी लोगों की काफ़ी सेवा-जतन करती है? अपने हाथों से खाना पकाकर खिलती है?'

अफ़ज़ल ने फिर ज़ोर से ठहाका लगाया। उसकी हँसी ने मुझे भी संक्रमित कर लिया। अर्से बाद मैं जैसे अपनी पहले की ज़िन्दगी में लौट गई। उसी कॉलेजविश्वविद्यालय के ज़िन्दगी में! उस हँसी-खुशी की सुखद ज़िन्दगी में! उस जिंदगी में, जो मेरी अपनी थी। उन पुराने दिनों में भी इसी तरह प्रकृति, कला-संस्कृति, इन्सान और इन्सानी तजुर्षों के बारे में जमकर गपशप हुआ करती थी। इस तरह सेवती के फ्लैट के एक छोटे-से कमरे में उस शाम, अचानक मेरा अतीत, मुझ तक लौट आया। अफ़ज़ल मुझे वर्षों का जाना-पहचाना दास्त लगा।

अफ़ज़ल की पसन्द थे-रैम्ब्रैन्ट और बैनगॉग! दो डच कलाकार! उसने खुद क़बूल किया कि उसकी पेंटिंग में क्लॉद मॉन की पेंटिंग्स बहुत ज़्यादा है, लेकिन मॉन की तरह वह इतने अधिक फूल-पत्ते नहीं आँकना चाहता। वह एक औरत का चेहरा आँकना चाहता है, जिस पर सुबह दोपहर और शाम की धूप पड़ रही हो।

'तो आप ऐसी पेंटिंग बना क्यों नहीं रहे हैं?' मैंने पूछा।

'ऐसी कौन-सी औरत है, जो मुझे दिन-भर वक़्त देगी? ऐसी औरत कहाँ मिले?'

कमरे में घूमती हुई बिल्ली की ओर इशारा करते हुए मैंने कहा, 'सिर्फ औरत की पेंटिंग बनाने की क्या ज़रूरत है? बिल्ली पर भी उन रोशनी के प्रभाव दिखाए जा सकते हैं।'

बिल्ली की भी पेंटिंग बनाई जा सकती है, अफ़ज़ल भी जानता था। मगर बिल्ली पोज क्यों मानने लगी? हाथ में तूलि उठाते ही या चूहे की आहट पाते ही, बिल्ली भाग खड़ी होगी।

भई, तो औरत ही भला पोज क्यों मानने लगी?' मैंने पूछा, 'औरतें शायद पोज मानने वाली चीज़ हैं?'

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पाँच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. पन्द्रह
  15. सोलह
  16. सत्रह
  17. अठारह

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