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शोध

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3010
आईएसबीएन :9788181431332

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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास


अफ़ज़ल मेरे आमने-सामने बैठा हुआ, रॉकिंग-कुर्सी पर बैठकर झूलते-झूलते, अपने देखे हुए पहाड़-पर्वत-समुन्दर के किस्से सुनाता रहा। पहाड़ों से उतरते हुए झरनों का दृश्य! कोई एक नदी, पहाड़ के नितम्ब पर बहती हुई, अरण्य की छाती पर उदास लोटती-पोटती, कहीं, अजानी दिशा की तरफ़ चली गई थी। उस नदी के साथ अफ़ज़ल की ढेरों वातें हुई थीं : प्रकृति के असल सामीप्य में पहुँच कर, वह समाज, घर-द्वार, सबकुछ भूल जाता है, यहाँ तक कि उसे तस्वीरें आँकने की भी सुध नहीं रहती।

उसकी बातें सुनते-सुनते मैं अनमनी हो आई। मुझे यह अहसास होता रहा कि अफ़ज़ल के साथ मैं भी उन जगहों में घूमी हूँ। पहाड़ों के शिखर से दौड़कर, उसे नीचे लहराते नीले सागर की तरफ़ आते हुए, मैंने भी देखा है। मैंने उसे उत्ताल लहरों, हरिताभ जल की ओर भागकर आते हुए और उत्ताल-उन्मादी लहरों के अपूर्व रुपहले जिस्म को निहारते-निहारते उसे उदास होते भी देखा है। मेरी आँखों ने उसे रेतीले तट पर हाथों पर रंग-तूलिका थामे हुए बैठे देखा है, जहाँ वह सूर्यास्त की तस्वीर आँक रहा होता है। रह-रहकर वह तूलि रख देता है और पश्चिम के समूचे आसमान पर वह रंगों के खेल को, मुग्ध निगाहों से निहारने लगता था। उसके रंग, तूलिका, रेत पर यूँ ही पड़े रह गए हैं। जब अफ़ज़ल की तन्मयता टूटती है, तब अँधेरा हो चुका होता है। अँधेरा छाया होता है कि सफ़ेद रंग का पन्ना भी उसे नज़र नहीं आता।

अफ़ज़ल ने उसे अपनी आँकी हुई तस्वीरें दिखाईं। निस्तब्ध नदी पर सूर्यास्त; आँधी-तूफ़ान में नाचते हुए सुपारी के बाग; आकाश से अपनी पीठ टिकाकर, लेटे हुए पहाड़; बीच-सागर में उदास पहाड़ों का घुटने गाड़कर खड़े रहना; बारिश में गाँव की कच्ची पगडण्डी पर भीगता हुआ एक अकेला इन्सान; घूसर आकाश के एक कोने में रक्तिम आभा-नीचे चमचमाता हुआ सुनहला जल और अपने-अपने घोंसलों की तरफ़ लौटते हुए झुण्ड भर पाखी!

उसने पूछा, 'क्यों? तस्वीरें कैसी लगी?'

'अच्छी है।'

मैं मन-ही-मन बुदबुदा उठी-चित्रों से ज़्यादा चित्रकार ने और ज़्यादा मुग्ध किया है।

मेरा मन हुआ कि मैं उससे पूछ् कि कभी-कभार अगर मैं यहाँ उससे गपशप करने और उसकी तस्वीरें देखने, यहाँ आया करूँ, तो...? लेकिन मैंने अपनी चाह, मन में ही दवा ली, लेकिन मैंने नहीं कहा। मन-ही-मन मैंने अफ़ज़ल की तरफ़ से, ख़ुद ही जवाब दे लिया-'अरे, वाह, यह तो मेरी ख़ुशकिस्मती होगी।'

क्यों? मुझ जैसी औरत की वजह से कोई खुशकिस्मत बन जाए, ऐसा होना तो नहीं चाहिए था। मैं ठहरी ऊपरी मन्ज़िल की बहू! पराए घर की बहू क्या किसी की ज़िन्दगी में ख़ुशनसीबी ला सकती है? नहीं, ऐसा नहीं होता।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पाँच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. पन्द्रह
  15. सोलह
  16. सत्रह
  17. अठारह

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