उपन्यास >> शोध शोधतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास
नंगी नारी-मूर्ति से उसकी आँखें लौटा लाने की गरज़ से मैंने कहा, 'आपसे यूँ बातें करते हुए, मुझे किस क़दर भला लग रहा है, क्या बताऊँ।'
'क्यों?' अफ़ज़ल की निगाहें पटल आईं।
उसकी आँखें भी सिकुड़ आईं।
खैर, उसे अचरज तो होना ही था। मुझसे, उसकी कितनी देर बातें हुईं? इतने कम-से वक़्त में भला लगने जैसी कौन-सी बात हो गई? लेकिन, कहीं, कुछ नहीं घटा था, मगर मुझे भला-भला लगा।
अफ़ज़ल हँसता रहा! उस हँसी में भी एक किस्म का प्रोत्साहन था! मानो दोनों लोग, एक-दूसरे को बेलगाम बातें करने के लिए प्रोत्साहित कर रहे थे। उसके प्रोत्साहन पर मैंने अपनी काफ़ी सारी जीवनगाथा सुना डाली। खिड़की से टिककर खड़े, अफ़ज़ल की महकती-खुशबू विखेरती दूरी पर खड़े-खड़े मैंने उसे ढेर-ढेर बातें बता डालीं। कभी मेरे अनगिनत संगी-साथी थे, लेकिन अब उनमें से किसी के साथ भी मेरा सम्पर्क नहीं है। मुझे बेहद अकेलापन लगती है; यह ज़िन्दगी ही बेहद अजीब और अचीन्ही लगती है। मुझे इस ज़िन्दगी पर भयंकर गुस्सा आता है, बेहद हिकारत होती है।
शाम को बरामदे में खड़े-खड़े मैं जिस शख्स को बगीचे में, अकेले-अकेले चहलकदमी करते हुए देखती हूँ, वह भी मुझे बेहद अकेला लगता है। कभी-कभी वह शख्स अपने बेहद क़रीब भी लगता है।
यह सब बताते हुए, मैंने गौर किया, मेरी आवाज़ काँप रही है। एक बार तो मुझे लगा कि मेरी आवाज़ डर की वजह से काँप रही है, फिर लगा आवेग से काँप रही है। डर...हारुन की वजह से! आवेग इसलिए कि दूर खड़ा, मेरे हाथ की पहुँच के अन्दर जो शख़्स इस वक़्त मौजूद है, उसे पाने और भला लगने का आवेग! दोनों ही ख्यालों ने एक साथ ही मुद्दो अपने कब्जे में ले लिया। उससे बातें, करते हुए, आवाज़ के अलावा, मैंने गौर किया कि मेरे हाथ और उँगलियाँ भी काँप रही हैं। अचानक किसी को देखकर, वह आँखों को यूँ नहीं भा जाता। हारुन अगर मुझे अच्छा न लगा होता, तो उसकी कोई भी हरक़त या निगाहें मुझमें झुरझुरी न जगाती! मेरी जिंदगी ऐसी नहीं थी कि मैंने छोकरे या लड़के कभी देखे नहीं या इसके पहले किसी सुदर्शन मद को नहीं देखा।
खिड़की से आती हुई धूप से अपनी पीठ बचाकर, मैं बिस्तर पर आ बैठी।
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