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शोध

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3010
आईएसबीएन :9788181431332

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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास


यह पूरी घटना, मैंने रसून से सुनी है। मैंने जब इस घर में क़दम रखा, उससे छः महीने पहले की यह घटना है। विवाह के बाद, हसन विदेश चले जाने की कोशिश कर रहा है। इस देश में चाहे और जो भी रहता हो, इन्सान नहीं रह सकते, इस बारे में वह निश्चित हो चुका था। वह अक्सर विदेश जाने के बारे में तरह-तरह के क़ाग़ज लाकर, अपने घरवालों को चौंकाता रहता था कि बहुत जल्दी ही वह यह देश छोड़ देगा और इस तरह वह उन लोगों को उम्मीद और आतंक में डाले हुए था। हवीव उससे बिल्कुल उल्टा था। विदेश उसे बिल्कुल नहीं खींचता था। उसके ख्याल में देश का मज़ा ही बिल्कुल अलग है। यहाँ लाटसाहब की तरह जीया जा सकता है। घर में हल्ला-गुल्ला सबसे ज़्यादा हबीब ही मचाता था। उसका किसी से इश्क करने या ब्याह करने का बिल्कुल कोई इरादा नहीं है। उसे यह सब निरा झमेला लगता है। वह मछली नहीं, मांस खाता है। लेकिन गो-मांस नहीं चलता। उसे मुर्गी चाहिए। मुर्गी भी ऐसी-वैसी नहीं, मुर्गी का चूज़ा चाहिए। अक्सर शाम के वक़्त वह गले में गिटार झलाकर, टन्न-टन्न किया करता और, भरपूर गले से गाता रहता था।

'भई, एक बार सुरों का मज़ा मिल जाए, तो लिखाई-पढ़ाई, नौ से पाँच बजे तक की गुलामी वगैरह कुछ भी करने का मन नहीं होता, यह सब वेहद तुच्छ लगता है। अरे, ज़िन्दगी आखिर कितने दिनों की है? ज़रा नाच-गाकर ही क्यों न गुज़ारा जाए?'

हवीब की वातों और हरक़तों से सास-ससुर, दोनों ही परेशान रहते थे! हारुन उन दोनों से ज़्यादा उद्विग्न रहता था। सासजी आज हसन और हवीब के बजाए अनीस की हालत और भविष्य को लेकर ज़्यादा चिन्तित हो उठीं। मेरे सामने अनीज की असुविधा और परेशानी का जिक्र छेड़ने की वज़ह मैं समझ सकती हूँ। चूंकि मैं हारुन की परम प्रिय, मनपसन्द बीवी हूँ, मैं ही उसके सामने अनीस की बदहाली का जिक्र छेडूं! लेकिन मुझे पता है, हारुन से यह सव कहने की कोई ज़रूरत नहीं, क्योंकि वह ख़ुद ही इस बारे में काफ़ी सोच-विचार रहा है। प्रायः समूची रात कमरे में बैठा-बैठा, दनादन सिगरेट प्रूकता रहता है और गहरी चिन्ता-फ़िक्र में डूबा रहता है।

मैंने पूछा भी था, 'इतना क्या सोचते रहते हो, बताओ तो?'

'तुम नहीं समझोगी'

'समझूगी क्यों नहीं? तुम उताकर तो देखो, मैं समझती हूँ या नहीं समझती-'

मैं समझ जाऊँगी, बावर्चीख़ाने का कामकाज करने के बावजूद, मैं रसूनी से ज्यादा पढ़ी-लिखी हूँ, मैं पदार्थ विज्ञान की छात्रा रही है-यह बात, मेरे याद न दिलाने पर भी, समझाने से मैं समझ जाऊँगी, यह वात मैंने काफ़ी ज़ोर देकर कहा। मेरे कहने के बाद भी हारुन में मुझे समझाने का कोई उत्साह नज़र नहीं आया।

मेरे काफ़ी दवाव डालने पर, उसने कहा, 'अनीस का कोई न कोई इन्तज़ाम करना होगा। उसे कोई कारोवार में लगा दिया जाए या नहीं, यही सोच रहा हूँ।'

'तुम उसे अपने कारोबार में ही शामिल कर सकते हो।'

'हाँ, कर सकता हूँ। लेकिन कोरिया के सहयोग से एक फार्म शुरू होने जा रहा है। मैं सोच रहा था, उसे वहाँ मैनेजर बना दिया जाए।'

मैंने हसन और हबीब का भी जिक्र छेड़ा, क्योंकि सासजी ने मुझे तकादा करने की हिदायत दी थी।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पाँच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. पन्द्रह
  15. सोलह
  16. सत्रह
  17. अठारह

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