उपन्यास >> शोध शोधतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास
हारुन ने मेरी बात सुनकर कहा, 'मैं उन दोनों की विदेश भेज दूंगा। अब जैसे भी हो, कुछ तो करें और कमाएँ-खाएँ।'
हारुन जब अपने भाई-बहनों के बारे में, उन लोगों को स्थिर करने के वारे में ख़ुद ही सोच रहा था, तो मुझे तकादा मारने की कोई जरूरत नहीं, यह मैं समझती हूँ। हारुन अक्सर ही दोलन, अनीस और अपने अम्मी-अब्बू के साथ, अनीस के भविष्य के बारे में, बैटक घर में बैठे-बैठे लम्बे-लम्वे विचार-विमर्श किया करता था। मैं वहाँ सिर्फ चाय-बिस्कुट पहुँचाने आती हूँ। हालाँकि सासजी ने अनीस की समस्या के बारे में मुझसे बात की है, शायद इसलिए कि मैं समझ सकूँ कि यह समस्या, वाकई बेहद गम्भीर समस्या है और मैं उनकी यह गरज़ समझ सकती हूँ। उन्हें शायद यह लगा हो कि इसे मैं समस्या के रूप में ले ही नहीं रही हूँ, इसलिए वे मुझे बताने आईं और साथ ही मेरे दिमाग में यह बात अच्छी तरह बैठा देने के लिए आईं कि दोलन के लिए यह बेहद संकट के दिन हैं। सासजी को शायद यह आशंका थी कि चूँकि हारुन मुझे प्यार करता है, कहीं अचानक मैं उसे यह हिदायत न दे बैतूं कि किसी दूसरे के लिए इतना सोचने या परेशान होने की जरूरत नहीं है। वह सिर्फ मेरे लिए सोचे। ऐसे में मुमकिन है हारुन का दिमाग़ घूम जाए। मुमकिन है वह अपने भाई-बहन की समस्या को समस्या ही नहीं समझे या उन्हें सुलझाने की उसे फुर्सत ही न रहे। अगर ऐसी स्थिति आई, तो मैं येन-केन प्रकारेण दोलन के दुःसमय को सुसमय में बदलने की कोशिश करूँ। मेरे दुःसमय के बारे में भला कौन सोचता है? मेरा तन-बदन इन्सान का तन-बदन नहीं है, इसलिए मेरे अन्दर कोई रोग-शोक नहीं है, इसलिए मुझे हर दिन बावर्चीख़ाने में जाना चाहिए। वैसे घर के कामकाज के लिए दो-दो कामवाली औरतें मौजूद थीं। सिर्फ़ रसूनी ही नहीं, सकीना भी थी। दोनों ही खाना अच्छा पकाती थीं, इसके बावजूद घर की बहू के हाथ का पकाया खाना ही घरवालों को चाहिए। खासकर पति! पति भला नौकर-चाकर के हाथों पकाया हुआ खाना खाएगा? अगर उनका पकाया हुआ ही खाना होता, तो भला विवाह करने की क्या जरूरत?
बहरहाल, सिर पर ठंडा पानी उड़ेले बिना ही, चक्कर खाते हुए सिर समेत, प्याज-लहसुन, कच्ची मछली, हल्दी-अदरक की गन्ध से महमहाते हुए बावर्चीखाने में जा घुसी। रसूनी मछली काट-कूट रही थी। सब्जी कटी-धुली तैयार थी। सकीना मसाला पीस रही थी। मुझे उबकाई आने लगी, लेकिन मैंने चूल्हे पर कड़ाही बिठाकर, खाना चढ़ा दिया। रसून लज़ीज़ खाना पकाती है। लेकिन घरवाले मेरा ही पकाया हुआ खाना खाने को क्यों बेताब रहते हैं, यह मुझे आज तक समझ में नहीं आया। तेल में प्याज छौंककर, उसमें हल्दी-मिर्च-धनिया डालकर, मैं उसमें कलछी चलाते-चलाते सोचती रही कि रसूनी पिछले पच्चीस सालों से खाना पका रही है; खाना पकाना उसकी आदत बन चुकी है, बाकायदा अनुभवी है और मैं इस काम में कुल डेढ़ महीने से आई हूँ। मेरा पकाया हुआ खाना लज़ीज़ बने, इसकी कोई वजह नहीं है। जो कुछ भी सीखना था, मैंने रसूनी से ही सीखा है। रसूनी के मुकाबले मैं बेहद कच्ची हूँ; पकाने में अनाड़ी; मेरा पकाया हुआ खाना ज़ायकेदार हो ही नहीं सकता, फिर भी घरवाले मेरे ही हाथ का पकाया हुआ खाना खाने को जीभ लपलपाते रहते हैं। क्यों? इसलिए कि मेरी हथेली, रसूनी की हथेली के मुक़ाबले ज़्यादा गोरी थी? या उसके हाथ में काँच की चूड़ियाँ थीं और मेरे हाथ में सोने की चूड़ियाँ थीं? या इसलिए कि रसूनी के हाथों ने कभी किताब-कॉपी नहीं थामी, जबकि मेरे हाथों में किताब-कॉपी थी? रसूनी के हाथ ने पदार्थ-विज्ञान के बड़े-बड़े तथ्य नहीं लिखे और मेरे हाथ ने लिखे, इसलिए मेरे हाथ में कोई अलग-सा स्वाद आ बसा?
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