उपन्यास >> शोध शोधतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास
'बहूरानी, ज़रा पनडब्बा तो उठा लाना-'
पनडब्बे से पान निकलाकर अपने मुँह में डालने के बाद, उन्होंने मेहमानों को भी खिलाया और उन्हें गर्व से बताया कि मेरे पापा विश्वविद्यालय में बड़े प्रोफेसर हैं। मैं पढ़े-लिखे खानदान की लड़की हूँ! बाप के पास ढेरों दौलत है। इस ढाका शहर में अपना निजी मकान होना, क्या कम बात है? बेटी भी पढ़ी-लिखी है!
कोई भी बाहरी व्यक्ति आ जाए, सासजी मेरे बारे में बढ़ा-चढ़ाकर बखान करती थीं। लेकिन जब मैं अकेले कमरे में उनके पके बाल चुनती थी, वे मुझे भी सुनाने से बाज़ नहीं आती थीं।
'तुम तो बहू, इस घर में खाली हाथ चली आई। हारुन के ब्याह की बात तो एक ब्रिगेडियर की लड़की के साथ चल रही थी। तुम्हारी जगह, अगर वह लड़की आती, तो इस घर में नए-नए सामान आते, फ्रिज, टेलीविजन, सोना-दाना...बहुत कुछ आता। बारह तोले सोना देने की बात, तय हो चुकी थी।'
'तो वह विवाह हुआ क्यों नहीं?'
'हारुन ही अड़ गया कि वह तुमसे ही विवाह करेगा। बेटे को रोकना, हमारे वश में नहीं था।'
दिन इसी तरह गुज़रते रहे।
थोड़ा-बहुत सच और बाक़ी सब झूठ में ही वक़्त कटता रहा। जब सेवती आती थी, सिर्फ तभी ऐसा लगता था कि चलो, कोई एक इन्सान तो मिला, जिससे दिल की बात की जा सकती है। कोई तो ऐसा शख्स है, जिससे लिपटकर रोया जा सकता है; संग-संग हँसा जा सकता है, बाहर की दुनिया के किस्से सुने जा सकते हैं। कोई तो है, जिससे अपनी इस छोटी-सी दुनिया के बारे में कहा-सुना जा सकता है। आजकल तो मैं यह भी भूलती जा रही हूँ कि मेरा शैशव, बचपन किसी सभ्य-शिक्षित परिवेश में गुज़रा था। मेरे पापा-माँ हमेशा मुझे लिख-पढ़कर, सच्चा इन्सान बनने और अपने पैरों पर खड़े होने की सीख देते रहे। बचपन में उन दोनों से ही यह सीख सुनकर, मैं हँस देती थी। मुझे लगता था, अभी भी इन्सान ही हूँ, जन्तु नहीं और अपने दोनों पैरों पर ही तो खड़ी हूँ। लेकिन अब जाकर, उनकी हिदायतों का मतलब समझ पाई हूँ। सच तो यह है कि स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय-सारे पड़ाव पार कर आने के बाद भी, मैं अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो पाई। अपना कहने को मेरा कुछ भी नहीं है। अब तो गैर भले, तो मैं भी भली; पराए सुखी, तो मैं भी सुखी! दूसरों की तकलीफ़ ही, अब मेरी तकलीफ़ है। हाँ, इसीलिए, जब घर में यह ख़बर आई कि हारुन को कारोबार में दस लाख रुपयों का नुकसान हुआ है, तो सब उदास हो आए। मुझे भी दुःखी-दुःखी चेहरा बनाए, बैठे रहना पड़ा।
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