उपन्यास >> शोध शोधतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास
आजकल रात के वक़्त अक्सर ही हारुन मेरी साड़ी खोलते-खोलते दोहराता है, 'अब हमें भी एकाध बच्चा हो जाना चाहिए! ज़रूरी है।'
मैं मन-ही-मन बुदबुदा उठती हूँ-हाँ, अब बच्चे की ज़रूरत है, पिछली बार नहीं थी।
हारुन को यह पक्का विश्वास हो गया था कि पिछली बार जो बच्चा मेरी कोख में था, वह हारुन का नहीं था। वैसे डेढ़ महीने में कोई औरत गर्भवती हो सकती है या नहीं, हारुन ने किसी भी डॉक्टर से पूछताछ नहीं की। सारा कुछ उसका महज़ अन्दाज़ा था! गर्भ ठहरने के लिए कुल एक दिन ही काफ़ी है। अगले महीने माहवारी बन्द हो सकती है, यह कोई असम्भव बात नहीं। खैर, अगर बहस करने पर आती, तो हारुन हार जाता, लेकिन उसका शक़ किस क़दर भयंकर था, जो वह किसी शर्त पर भी यह मानने को राजी नहीं था कि वह बच्चा हमारा ही है!
अब हारुन बच्चा चाहता है। हमारे बच्चे के लिए आजकल वह इस क़दर बेकल हो उठा था कि रात को कई-कई बार वह मुझे नींद से जगाकर, मेरी देह में डूब जाता। यह देह-सम्पर्क यौवन की उत्तेजना से ज़्यादा, बच्चा पाने की ललक, मुझे उत्साहित करने के लिए होता था। हमारा बच्चा!
मैंने महसूस किया, हारुन के साथ इस शारीरिक-मिलन में मुझे कोई चरम सुख नहीं मिलता था। गर्भपात के बाद से ही ऐसा होने लगा है।
बीच-बीच में वह पूछ बैठता था, 'हो गया तुम्हारा? मिला तुम्हें?'
मैं हामी भर देती हूँ! इसलिए कि मुझे डर लगता है कि मेरे चरम सुख न पाने की बात सुनकर, कहीं वह इसे मेरा कोई शारीरिक रोग न समझ ले।
मुझे नहीं मालूम कि गर्भपात के बाद मेरी देह में कहीं, कोई दोष तो नहीं आ गया; मेरी किसी नस पर कहीं छुरी न पड़ गई हो। पता नहीं! कहीं मन पर ही तो छुरी नहीं पड़ गई? मेरा मन हारुन को अब पहले की तरह प्यार नहीं करता। अब मेरा मन गुपचुप, इस भयंकर क्रूर इन्सान से नफरत करने लगा है।
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