उपन्यास >> शोध शोधतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास
'कभी कॉक्स बाजार गई हैं?'
'ना-'
जाइए, समुन्दर देख आइए दोनों मियाँ-बीवी! मूड ठीक हो जाएगा।'
'किसने कहा कि मेरा मूड ठीक नहीं है?'
'क्यों? आप शायद नहीं जानतीं कि आपका मन-मिज़ाज़ ठीक नहीं है।'
'मैं अच्छी-खासी तो हूँ। काफ़ी...'
'आप घुटन की शिकार हैं, झुमूर भाभी!'
'ना! बिल्कुल भी नहीं।'
'लेकिन मैंने गौर किया है...आपको लगातार जाँचता-परखता रहा हूँ...' अनीस ने कहा!
मैं शर्म से गड़ गई। अनीस कब, किस दरवाजे की दरार से मुझे देखता रहा है, कौन जाने!
‘आप फ़िल्में वगैरह भी तो देख सकती हैं। गाने सुन सकती हैं...या फिर ऐसा करें न, कुछ दिनों के लिए अपने मायके हो आएँ, अपने माँ-पापा से मिल आएँ।'
मैं हँस पड़ी। शायद यूँ हँसकर ही अपनी लाचारी पर पर्दा डाला जा सकता है।
अनीस के सामने, मैं अज़ब फ़जीहत में पड़ गई। वह शायद समझ गया। इसीलिए जब मैं तेज़-तेज़ क़दमों से कमरे से बाहर निकल आई, उसने मुझे रोकने की कोशिश नहीं की। अनीस को क्या पता चल गया है कि आजकल मैं स्वप्नहीन दिन गुज़ार रही हूँ? मेरा वह शिशु ज़िन्दा होता, तो ज़रूर मुझे तरह-तरह के सपने देता! अब मेरी आँखों में कोई सपना नहीं है। मैं तो दो पैरों वाली हाड़-मांस की जीव हूँ, जो हारुन के शारीरिक सुख के लिए रखा गया है। मैं और कुछ भी नहीं हूँ; मैं कोई नहीं हूँ।
मुझे ख़ुद भी अपने दुःख तकलीफ़ का अहसास है और मैं जी-जान से इन्हें छिपाए रखने की कोशिश करती हूँ। मैं अपना दुःख तकलीफ़ किसी के साथ भी नहीं बँटाना चाहती। यहाँ तक कि हारुन के साथ भी नहीं।
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