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शोध

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3010
आईएसबीएन :9788181431332

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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास


उसने लगभग फुसफुसाकर कहा, 'चलें, भाभी, नाश्ता कर लें।'

'नहीं नाश्ता मुझे नहीं करना! तबीयत ठीक नहीं है।'

रसूनी मेरे खूब क़रीव चली आई।

मेरे अलावा उसकी बात कोई न सुन पाए, इस लहज़े से उसने कोमल लहज़े में फुसफुसाकर कहा, 'तबीयत ठीक न होने की वजह?'

रसनी की फसफसाहट की वजह का मैं अन्दाज़ा लगा सकती हैं। खौफ! डर! क्योंकि मैंने सुबह का नाश्ता तैयार न करने का गुनाह किया था। गुनाहगार के साथ खुशदिल अन्दाज़ में बातें करने से घरवाले नाराज होते या फिर यह वजह भी हो सकती है कि गृहस्थी में और किसी की तबीयत भले खराब हो, लेकिन बहुओं को हरगिज़ बीमार नहीं होना चाहिए। बहुओं को हमेशा स्वस्थ और सेहतमन्द होना चाहिए, क्योंकि बहओं के कन्धों पर ही गृहस्थी की जिम्मेदारी होती है। गृहस्थी में कोई बन्दा बीमार होता है, तो बहुओं की हाथ की सेवा से वे निरोग होते हैं, इसलिए बहुओं के दायरे में दूर-दूर तक रोग-शोक की बला दाखिल नहीं होनी चाहिए। अगर यह वला दाखिल हो गई, तो घर के सभी लोगों को झुंझलाहट देती है और जो विरक्ति की वज़ह हो. उससे कोमल लहज़े में बात करना, बदस्तूर अन्याय है। रसूनी भी तो किगी घर की बहू थी, उसे भी उस घर में तरो-ताज़ा रहना पड़ता था, उसे भी बीमार होना मना था। रसूनी ससुराल की आबोहवा बखूबी समझती थी, इसीलिए वह फुसफुसाकर बातें करती थी, बातें करते हुए उसकी आँखें बार-बार दरवाजे की तरफ़ उठ जाती थी, कमरे में कोई आ तो नहीं गया या उसकी फुसफुसाहट कोई सुन तो नहीं रहा-इस बारे में वह पूरी सचेत होती थी। रसूनी ने धूप से मेरी पीठ वचाने के लिए खिड़की के पर्दे खींच दिए। मेरे लिए उसका अतिरिक्त स्नेह मैं समझती थी। अतिरिक्त स्नेह शायद इसलिए था. क्योंकि इस घर के सारे कामकाज. हम दोनों आपस में बाँटकर करते थे। इस घर में रसूनी काम करने वाली नौकरानी थी और मैं इस घर की बहू। दोनों के पद में ज़मीन-आसमान का फ़र्क था। मगर कामकाज में कोई फ़र्क नहीं था। रसूनी भी खाना पकाती थी, मैं भी! कभी-कभी तो मुझे रसूनी अपने से ज़्यादा खुशकिस्मत लगती थी। रसूनी जब चाहे, इस घर की नौकरी छोड़कर जा सकती थी, लेकिन मैं नहीं जा सकती थी। रसूनी अपने काम के बदले में तनख्वाह पाती थी, लेकिन मुझे कुछ नहीं मिलता। रसूनी का मन होता था, तो वह सिर ढंकती थी, जब नहीं होता था, वह नहीं ढंकती थी। मुझे न चाहते हुए भी हर वक़्त सिर ढंके रखना पड़ता था। जब वह फर्श पर बैठी-बैठी, मुझे घर भर के हवाले दे रही थी-नाश्ता खाकर हारुन के अम्मी-अब्बू आराम कर रहे हैं, हबीब, बाहर चला गया, हसन सो रहा है, रानू कुछ बुनाई कर रही है-ठीक उसी वक्त मेरी सासजी कमरे में दाखिल हुईं। कामकाज छोड़कर रसूनी गप्पें क्यों मार रही है, उन्होंने पूछा, रसूनी ने झट से मेरे माथे पर आँचल खींच दिया और हड़बड़ाकर उठ खड़ी हुई। वह मुझे नाश्ते के लिए बुलाने आई थी, मगर मेरी तबीयत खराब देखकर, वह ज़रा वैठ गई-यह सफ़ाई देते हुए, वह लगभग दौड़कर बाहर निकल गई।

सास जी मेरे बिस्तर पर बैठ गईं और मेरे सिर पर हाथ रखकर कहा, 'नहीं तो, बुख़ार तो नहीं है।'

मानो बीमारी का एकमात्र लक्षण बुख़ार है। दिन के दस बज गए और मैं अभी तक लेटी हुई थी, दृश्य के तौर पर यह नज़ारा वाकई कुत्सित था, मुझे भी इसका अन्दाज़ा था। लेकिन, दोपहर के खाने के लिए मैं कोई इन्तज़ाम नहीं कर रही हूँ, सब्जी-दाल न सही, कम-से-कम मांस-मछली पकाने के लिए तो मुझे वहाँ होना चाहिए था। मैं बावर्चीख़ाने में क्यों नहीं जा रही हूँ, शायद यह सोच-सोचकर वह मन-ही-मन झुंझला उठी थीं।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पाँच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. पन्द्रह
  15. सोलह
  16. सत्रह
  17. अठारह

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