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शोध

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3010
आईएसबीएन :9788181431332

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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास


बाद में हारुन ही मुझे शिप्रा के यहाँ ले गया। हालाँकि उसने मुझे यह भी सुना दिया कि उसे बिल्कुल फुर्सत नहीं है। इतना-सा ही वक्त निकालने के लिए उसे कम हंगामा नहीं करना पड़ा। विवाह ने मेरी ज़िन्दगी बदल दी है, इसका मुझे वखूवी अन्दाज़ा होने लगा है। विवाह ने हारुन को भी बदल दिया। पहले ऐसे दिन भी गुज़रे थे, जब पूरे दिन, सुबह से लेकर शाम तक, हम दोनों घूमते-फिरते, सैर-सपाटे करते रहे हैं। हम दोनों ढाका के बाहर निकल गए हैं, कभी कुमिल्ला, कभी नेत्रकोना। नहीं, बाहर जाने की कोई वजह नहीं होती थी, बस, यूँ ही! गाँव की कच्ची सड़क पर चलते रहने के लिए, कंस नदी में सूर्यास्त देखने के लिए, टीले पर बैठे-बैठे, आसमान निहारने के लिए!

हारुन कहा करता था, मेरा मन करता है! ज़िन्दगी भर, तुम्हारे साथ घूमता रहूँ; मेरा जी चाहता है, ज़िन्दगी भर, यूँ ही तुम्हारे करीब बैठे-बैठे, ज़िन्दगी की बात करूँ। तुम्हारे विना कामकाज, समाज-संसार...कुछ भी भला नहीं लगता।'

पूरा-पूरा दिन एक साथ गुज़ारने के बाद भी हारुन का मन नहीं भरता था। वह पूछता था, यह दिन इतना छोटा क्यों हो गया, बताओ तो?'

खैर दिन तो मुझे भी बेहद छोटा लगता था। काश, एक-एक दिन बारह साल का होता, तभी मन की साध मिटती।

ब्याह के बाद, हारुन ने कहना शुरू किया, ज़िन्दगी में काम ही सबसे बड़ा होता है। मन लगाकर काम न करो, तो कोई सीढी नहीं चढ सकता, चाहे कोई भी काम हो। विवाह के तीन दिनों बाद ही जब हारुन ने नौ बजे से पाँच बजे दफ्तर जाना शुरू कर दिया, तो मुझे बड़ा खाली-खाली लगने लगा।

'और थोड़े-से दिन छुट्टी ले लो न!' मैंने कहा।

हारुन की भौहें सिकुड़ आईं, इतने दिनों दफ्तर न करके, मुझे कितने रुपए का गच्चा लगा है, तुम उसका हिसाब भी नहीं लगा सकतीं। वैसे भी अब ख़ामख्वाह घर में क्यों बैठा रहूँ? ब्याह तो हो ही गया।'

'ब्याह हो जाने के बाद, सारे साध-आल्हाद मर जाते हैं?'

"मर क्यों जाएँ? तब भी ज़िन्दा रहते हैं। लेकिन अब जब चाहूँ तुम्हें पा सकता हूँ। अब तो तुम मेरे हाथ के करीब ही हो। इसलिए अब पहले की तरह दीवानगी
नहीं है।'

हारुन अब, जब चाहे मुझे छू सकता है, मुझे पा सकता है, यह बात उसने
कहीं से झूट भी नहीं कही। यानी मुझे अपनी दख़ल में ले चुका है, क्या इसीलिए मुझे अपने क़रीव पाने या मुझे जीत लेने की, उसकी आकांक्षा कम हो गई है? मुमकिन है, शायद यह सच हो। लेकिन मेरी राय में किसी को जब-तब अपने हाथों के करीब पा लेने का यह मतलब हरगिज़ नहीं होता कि उसे दिल के भी करीव पा लें। मैंने खद गौर किया है, हारुन के करीब आकर, मैंने जितनी दूरी महसूस की है, उतनी दूरो उस वक़्त नहीं थी, जब उसकी पहुँच से बाहर थी।

रसूनी ने हौले से दरवाजे पर धक्का दिया और चुपचाप कमरे में दाखिल हुई। मेरी पीठ पर धूप पड़ते देखकर, उसने खिड़की के पर्दे खींच दिए।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पाँच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. पन्द्रह
  15. सोलह
  16. सत्रह
  17. अठारह

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