उपन्यास >> शोध शोधतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास
हारुन की आँखों में वही अबूझ भाषा!
'देखो, तुम ज़रा भी खुश नहीं हो! मैं क्या अकेली-अकेली ही खुश होती रहूँ? अभी तक, किसी को भी, इस बात की खबर नहीं है। तुम क्या धूमधाम से कोई समारोह करके, यह खबर देना चाहते हो? धत्तु ! फट से कह डालो न! कम से कम अपनी माँ को तो बता दो।'
मैं हारुन के चेहरे पर झुक आई, शायद प्यार पाने की उम्मीद में! कमरे के अन्दर हारून को चाय नहीं, चुम्बन पसन्द है।
लेकिन हारुन के होंठ, मेरे होंठों की तरफ़ नहीं बढ़े। उसकी आँखें थिर हो रहीं, मानो वे आँखें नहीं, पत्थर के दो टुकड़े हों।
अब जाकर हारुन ने अपनी जुबान खोली, 'तुम्हें क्या लगता है, वह शक्ल से किसकी तरह होगा?
'तुम्हारी तरह!' मैंने उसके माथे पर लहराते हुए बालों को प्यार से हटाते हुए जवाब दिया, 'बिल्कुल यही आँखें! यही माथा ऐसी ही नाक! होठ!' मेरी उँगली उसके माथ से फिसलती हुई, उसके होंठों तक उतर आई।
उस उँगली को परे हटाते हुए, हारुन ने कहा, 'कल मैं तुम्हें डॉक्टर के पास ले जाऊँगा।'
'डॉक्टर के पास? क्यों?' 'जाओगी. तो वजह भी पता चल जाएगा-'
'कौन-सी डॉक्टर? वही सोफ़िया? लेकिन डॉक्टर ने तो तीन महीने बाद आने को कहा है। कल ही क्यों?'
हारुन अचानक उठ बैठा।
'बच्चा गिराना होगा-'
'मतलब?'
'मतलब कुछ भी नहीं। बच्चा गिराना होगा।'
'यह तुम कैसी बातें करते हो?'
'कैसी बात नहीं है! जो कह रहा हूँ, सही कह रहा हूँ।'
'बच्चा गिराना क्यों होगा?'
मेरा तन-बदन काँप उठा! हाथ-पैर शिथिल हो आए। अचानक आँखों के आगे समूचा कमरा घूम गया। मैंने कसकर बिस्तर थाम लिया। मेरे अन्दर-ही-अन्दर कहीं, कोई ताण्डव शुरू हो गया! मैं बेभाव रो पड़ी। हारुन ने मेरे आँसुओं की तरफ़ पलटकर भी नहीं देखा। मुझे उसने छुआ भी नहीं। मुझे तसल्ली-भरी नहीं दी- 'ना, लक्ष्मी बहू, यूँ रोते नहीं हैं।'
मैंने अपनी हथेलियों से आँसू पोंछ लिए।
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