उपन्यास >> शोध शोधतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास
हारुन जुबान काटकर, दौड़ा-दौड़ा आ पहुँचा और उसने डपटते हुए सवाल मुझसे पूछा, यह क्या हो रहा है? चीन क्यों रही हो?'
'चीन कहाँ रही हूँ? हंस रही हूँ।'
'यह भी भला कोई ढंग है हँसने का? बग़ल में कमरे में लोगों के कानों तक आवाज़ पहुँच रही है।'
खैर, ब्याह से पहले मैं इसी तरह हँसती थी।
मेरी हँसी देखकर हारुन हमेशा की कहता था, तुम न बेहद ज़िन्दादिल हो! बेहद प्राणवन्त! तभी तो तुम मुझे इतनी अच्छी लगती हो।'
'अच्छा? यह बात है?'
'हाँ, सच!'
वही हारुन अब तमककर, मेरी हँसी रोकने के लिए दौड़ आता है।
'अच्छा, तो कैसे हँसना होगा अव?'
मैं पूछती हूँ। 'हँसो! हँसने में कोई नुकसान नहीं है। लेकिन यूँ मर्दमार ठहाके मत लगाओ।'
खैर! बेआवाज़ हँसी, मैं कभी नहीं हँसी। अब धीरे-धीरे, इसका अभ्यास करना पड़ रहा है। वैसे, आजकल हँसने-खिलखिलाने की कोई वज़ह भी नहीं होती, कोई मौका भी नहीं आता। यही गनीमत है!
सड़क वाले बरामदे में जब मैं खड़ी थी, तब मेरे सिर पर आँचल था या नहीं, हारुन मुझसे बार-बार पूछता रहा। जतनी बार मैंने जवाब दिया कि-सिर पर आँचल था या नहीं, मुझे याद नहीं--उतनी बार वह आवाक् हुआ है।
'लोग-बाग ज़रूर थू-थू कर रहे होंगे-' आस-पास के घर-मकानों की तरफ़ उँगली से इशारा करते हुए, उसने कहना जारी रखा, इन घरों की बहुओं का चेहरा कभी नज़र आता है? नहीं, कभी नज़र नहीं आता, क्योंकि उन घरों की बहुएँ बेहया की तरह मुँह उघाड़कर बाहर नहीं निकलतीं। बहुएँ घर के अन्दर ही रहती हैं। बरामदे में निकलकर, मुहल्लेवालों के सामने अपनी नुमाइश नहीं लगातीं।'
यहाँ इसी तरह का नियम है। जिस घर की बहू की एड़ी तक नज़र नहीं आती, उस बहू का उतना ही सुनाम होता है। हारुन के उलाहने के बाद, अगर कहा जाए, तो सड़क वाले बरामदे में मेरा खड़ा होना, लगभग छूट ही गया। मुझे रह नहीं मालूम था कि धानमंडी जैसे इलाके के किसी मकान की बहू कहाँ खड़ी है और उसका यूँ खड़ा होना शोभा है या नहीं, इस बात में भी लोग दिमाग भिड़ाते हैं। हाँ, धानमंडी की जगह अगर वारी होता , तो भी कोई बात थी! पुराने ढाका के भाड़-भाड़वाले इलाके में लोग इस-उस के घरों में ताक-झाँक करते थे; कहाँ क्या हो रहा है, कौन कहाँ खड़ा या सोया है, इस बारे में खासी बतकही होती थी; लोगों की लम्बी नाक, दूसरों के मामले में घुसने के लिए, चौबीसों घंटे खड़े रहती थी।
विवाह के हफ्ते-भर बाद सबह जब हारुन दफ्तर के लिए निकल रहा था. शिप्रा के घर मेरे जाने की बात सुनकर एकदम से अचकचा गया।
'शिप्रा के घर क्यों?' उसने दरयाफ्त किया।
'क्यों का क्या मतलब? मिलने जाऊँगी। उसे देखने!'
'क्या देखने?'
सच ही तो! क्या देखने जाना है? शिप्रा को देखने की, अचानक क्यों ज़रूरत पड़ गई, हारुन को समझ में नहीं आया। उनका बच्चा, जिसे मैंने ही नाम दिया था-सुख! उसे मैंने अब तक नहीं देखा। मैं सुख को देखने जाना चाहती थी।
हारुन हँस पड़ा, झूमुर, तुम्हारी पहले जैसी ज़िन्दगी अब नहीं रही। यह नई ज़िन्दगी बिल्कुल अलग तरह की है।'
'किस तरह की ज़रा मैं भी तो सुनूँ? मुझे तो लगता है, सब एक जैसा ही है। तुम्हें ज़रा और क़रीब पा लिया है, बस, यही मेरी अतिरिक्त प्राप्ति है।'
'और कोई बदलाव नज़र नहीं आ रहा है? तुम्हारा नाम बदल गया। अब तुम मिसेज़ हारुन-उर-रशीद हो। अब तुम हसन, हवीब और दोलन की मामीजान हा। तुम्हारा ठिकाना, अब वारी नहीं रहा, बल्कि धानमंडी का आवासीय इलाका है। अब तुम पहले की तरह डॉय-डॉय घूम-फिर नहीं सकती। अब तुम घर की बहू हो।'
'ओऽऽ, यह बात है!'
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