उपन्यास >> शोध शोधतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास
बारी जाने के लिए, मैं शाम से ही साड़ी-वाड़ी पहनकर, तैयार होकर बैठ गई। हारुन के दफ्तर से लौटते ही, मैंने हड़बड़ी मचाई।
'चलो, चलो, देर हो रही है।'
'देखो, मैं इस क़दर थक गया हूँ, अब फिर बाहर निकलूँ...'
'तुम्हीं ने तो कहा था, तुम साथ चलोगे-'
'हाँ, कहा तो था।'
'अच्छा, वारी जाना तुम्हारे लिए क्या बेहद ज़रूरी है? बेहद ज़रूरी न हो, तो खामख़ाह जाने से क्या फ़ायदा? गाड़ी का तेल खर्च करने की भला क्या ज़रूरत है?'
इतने सारे मन्तत्यों के बाद, वहाँ जाने की, मेरी इच्छा ही मर गई।
चलो, छोड़ो!' मैंने भरे हुए मन से कहा।
मैंने बेहद खुश-खुश मन से वहाँ जाना छोड़ दिया, ऐसा बिल्कुल नहीं था। यह देखकर भी हारुन ने उस रात मेरा मन ठीक करने का कोई उपाय नहीं किया। चलो, मान लिया, मायके नहीं जाऊँगी लेकिन यूँ हाथ पर हाथ धरे भला कितने दिनों बैठे रहा जा सकता है?'
अगले दिन हारुन जब दफ्तर के लिए निकल रहा था, मैंने कहा, 'इतना लिखना-पढ़ना, क्या मैंने घर बैठे रहने के लिए किया है? रात जाग-जागकर मैंने पढ़ाई की और पास हुई! इतनी मुश्किल-मुश्किल परीक्षाएँ, क्या सिर्फ घर-गृहस्थी में चूल्हा-चौका करने के लिए?'
हारुन ने चौंककर, अपनी निगाहें मेरे चेहरे पर गड़ा दीं, 'तुम कहना क्या चाहती हो?'
'मैं यह कहना चाहती हूँ, कि एकाध नौकरी कर लेती, तो बेहतर था।'
'तुम? तुम नौकरी करोगी?' हारुन के विस्मय का ठिकाना ही नहीं रहा।
'क्यों नहीं करूँगी?'
'यह तुम क्या कह रही हो? कैसी नौकरी चाहती हो?'
'कोई भी नौकरी! जो भी जुट जाए।'
'कैसी नौकरी, मैं भी तो सुनें।'
'तुम्हारे ही दफ्तर में! कितने ही लोगों को तो नौकरी देते हो, मुझे भी दे दो-'
'मतलब?'
उसे मतलब समझाने में, मैं नाकामयाब रही।
हारुन ने दुबारा सवाल किया, 'तुम नौकरी क्यों करना चाहती हो?'
'नौकरी करने के इरादे से ही तो इतनी लिखाई-पढ़ाई की। पढ़े-लिखे, जानकार लोगों को यूँ घर पर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना चाहिए?'
'इन्सान नौकरी करता है, रुपए कमाने के लिए। मेरे रुपए क्या तुम्हें कम पड़ रहे हैं?'
मैं हँस पड़ी!
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