उपन्यास >> शोध शोधतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास
आकाश को निहारते-निहारते ही, मैंने महसूस किया, मेरी आँखें भर आई हैं। मैंने झटपट अपने आँसू पोंछ लिए और फोन उठाकर हारुन के दफ्तर का नम्बर डायल करने लगी।
फोन पर मेरी आवाज़ सुनकर हारुन ने पूछा, 'क्या बात है? ऐसा क्या हो गया कि...?'
'कुछ हुआ नहीं। बस, यूँ ही फोन कर लिया।'
'यूँ ही?'
यूँ बेवजह मेरे फोन करने पर उसे विस्मय हुआ। हालाँकि ब्याह से पहले, इसी हारुन को उसके दफ्तर में जब-तब फोन किया करती थी। उन दिनों उसकी कोई व्यस्तता नहीं थी। उसने कभी नहीं पूछा कि मैंने फोन क्यों किया। दफ्तर में बैठे-बैठे ही वह मुझसे दुनियाभर की बातें किया करता था।
इस वक़्त उसने ख़ासे नाराज़ लहजे में मुझे डपट दिया, 'देखो, बेवजह, यूँ दफ़्तर में फोन मत किया करो! दफ्तर में सैकड़ों काम होते हैं मेरे लिए, तुम्हें कुछ पता है?'
हाँ, पता तो है! हारुन को वाक़ई कितने-कितने काम होते हैं! इन दिनों तो अचानक ही उसका काम काफ़ी बढ़ गया है। एक ज़माना था, जब ये तमाम काम तुच्छ कर दिया था और अब मेरे लिए पल-भर भी ख़र्च करना भी उसे वक़्त की बर्बादी लगती है। इन्सान इतना बदल कैसे जाता है? फोन रखकर मैं सोचती रही। वैसे चाहे जितना भी सोचूँ, कूल-किनारा नहीं मिलेगा, मुझे मालूम है।
अचानक सासजी मेरो कमरे में आईं।
मुझे यूँ खड़ी देखकर, उन्होंने कहा, 'तुम्हारे ससुर का गँठिया का दर्द अभी भी कम नहीं हुआ।
अब ससुरजी का गँठिया का दर्द कम न हो, तो मैं क्या कर सकती हूँ? हारुन के लौट आने के बाद, वे खुद ही उसे, उसके अब्बू के दर्द की ख़बर देंगी। हारुन ही उन्हें डॉक्टर के पास ले जाएगा। बस्स!
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