उपन्यास >> शोध शोधतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास
उन्हें आड़ में ले जाकर, वे लोग यहाँ तक सलाह दे डालते थे, 'सुनिए, आपको अव बच्चा नहीं हो सकता, ऐसा तो नहीं है। इस बार जैसे-तैसे कुछ करें और बेटे की माँ बनें। आखिर बेटा ही एकमात्र आसरा-भरोसा होता है।'
माँ ज़वाब देती थीं, 'बेटे को क्या धो-धोकर पीऊँगी? बेटा होने का क्या फ़ायदा, बताएँ? तेरह साल की उम्र में वह सिगरेट पीना शरू कर देगा, चौदह की उम्र में वह सड़क पर खड़ा-खड़ा लड़कियों को देखकर सीटी बजाएगा, पन्द्रह की उम्र में दारू पीना शुरू कर कर देगा और सोलह की उम्र में कमर में छुरा खोंसकर घूमेगा। इससे तो मेरी बेटी ही भली!'
माँ के इस ज़वाब पर, उनकी जुवान बन्द हो जाती।
हालाँकि माँ ने खुद स्कूल की चौखट पार नहीं की, मगर हम दोनों को वे हमेशा ही बड़े बनने की सीख देती थीं। माँ का ख्याल था, पढ़ाई-लिखाई के जरिए ही इन्सान बड़ा होता है।
माँ कहा करती थीं, 'ज़िन्दगी में, मैं लिख-पढ़ नहीं सकी, इसलिए अब धर्म-कर्म, पुण्य करने में जुटी हूँ। लेकिन यह तो फुर्सती काम है। ज़िन्दगी की शुरूआत से ही, मेरी क़िस्मत में रिटायर पल चल रहे हैं! तुम लोगों की ज़िन्दगी और तरह की होगी।'
बहरहाल, माँ का लिखाई-पढ़ाई न कर पाने का दुःख, हम दोनों के विश्वविद्यालय की चौखट पार कर लेने की वजह से शायद थोड़ा-बहुत कम हो गया। लेकिन यह बात मुझे कभी समझ में नहीं आई कि स्कूल की पढ़ाई तक पास न करनेवाली माँ
और विश्वविद्यालय पार करनेवाली मुझमें आख़िर फ़र्क कहाँ था? गृहस्थी की घानी तो दोनों ही, एक जैसे खींचने को लाचार हैं। ससुराल पहुँचकर जो देखा-सुना, उससे तो यही ज़ाहिर हुआ है कि बेटे की बहुरिया होने का मतलब है, गृहस्थी की सारी जिम्मेदारी समझ-बूझ लेना। इस घर में, एक और बेटे की भी बीवी मौजूद है-रानू! रानू मैट्रिक तक भी नहीं पहुँच सकी, लेकिन पदार्थ-विज्ञान की सर्वोच्च डिग्री हासिल करने के बावजूद, मुझे आख़िर क्या फ़ायदा हुआ? घर-गृहस्थी के कामकाज में, किसी कम पढ़ी-लिखी या अनपढ़ बहू के मुक़ाबले, मैं क्या ज़्यादा सुयोग्य हूँ? इस गृहस्थी में जैसे रानू, वैसी मैं! हमारा परिचय है-बहू! किसने, कितनी क्लास ज़्यादा पार किया है, ससुराल में इसका हिसाब-किताब नहीं रखा जाता!
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