उपन्यास >> शोध शोधतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास
सिर पर आँचल खींचकर, मैं सिर झुकाए खड़ी रही। मुझे अन्दाज़ा हो गया कि सासजी शायद यह चाह रही हैं कि ससुरजी के गठिया के दर्द की ख़बर पाकर, मेरा चेहरा करुण हो उठे और मैं मारे फिक्र के लम्बी उसाँसें भरने लगूं। इस घर में कोई हादसा हो जाए या कोई बीमार हो तो उसके लिए मैं अफ़सोस न करूँ, तो मैं लायक बहू कैसे हो सकती हूँ? सिर्फ़ बहू होना ही तो काफ़ी नहीं है, इसके लिए सुयोग्य भी बनना पड़ता है। सासजी मुझे अक्सर सुनाया करती हैं कि उनकी जबरजंग सास उन्हें बेहद प्यार करती थीं। वे उनकी लायक बहू जो थीं! उन दिनों घर में कोई नौकर-चाकर भी नहीं था। सारा कामकाज सासजी अकेले ही, अपने हाथों से करती थीं। ऐसे कामकाजी इन्सान को काम के प्रति इतनी वितृष्णा क्यों है, मेरी समझ से बाहर है। बैठे-बैठे उन्होंने अपनी देह का आकार-प्रकार ख़ासा विशाल बना लिया है। जब वे चलती हैं, तो पैरों की धप-धप आवाज़ गूंजती है, धरती काँपने लगती है।
बहरहाल, ससुरजी के गँठिया-दर्द की ख़बर देकर ही वे नहीं थमी। उन्होंने यह सूचना भी दे डाली कि आजकल अक्सर ही उनकी देह कसमसाती रहती है। रसूनी को बदन दबाने के लिए तलब करें, यह भी सम्भव नहीं हो पा रहा है। रसूनी अगर उनका बदन दबाने में जुट जाए, तो घर का कामकाज कौन करेगा? मुझे पक्का अन्दाज़ा हो गया कि सासजी चाहती हैं कि या तो मैं उनके बदन दबाऊँ या रसूनी के कामों की जिम्मेदारी, अपने जिम्मे ले लूँ और रसूनी को उनका बदन दबाने के लिए भेज दूं। यह कौन-सा मुश्किल काम है? सीधे रसोईघर में जाकर, रसूनी को मसाला पीसने से आज़ाद कर दूँ। यही बेहतर है। सासजी का बदन दबाने से बेहतर है कि यह काम ही बेहतर है। वैसे मैंने उनका बदन कभी नहीं दबाया हो, ऐसा भी नहीं है। ऐसे ही एक बार उन्होंने बदन में हल्के-हल्के दर्द की शिकायत की। मैंने खुद ही कहा-लाइए, मैं दब हूँ। शौक़ से बदन दबाने का जो काम मैंने दोपहर को शुरू किया था, उससे कहीं : म को रिहाई मिली। बदन नहीं था, मानो पूरा पहाड़ था।
रात को जब हारुन खाने बैठ, तो उसने नाक चढ़ाकर दरयाफ्त किया, 'आज खाना तुमने नहीं पकाया?'
'आज तुम्हारी माँ का बदन दबाते-दबाते ही सारा दिन गुज़र गया। पकाने का वक्त नहीं मिला।' मैंने जवाब दिया।
मेरे लहजे में कहीं झंझलाहट भी थी। हारुन को वह झंझलाहट भली नहीं लगी।
'मैंने तो सुना है कि जो औरत पकाती है, वही अपने बाल भी बाँधती है-' ने तीर छोड़ा।
'बाल बाँधना और खाना पकाना, एक ही बात नहीं है-'
'तुम्हें क्या इस बात का अहसास है कि मेरी माँ ही, तुम्हारी माँ है! तुम्हारी माँ के बदन में दर्द हो, तो तुम नहीं दबाती?'
'मेरी माँ को कभी बदन-दर्द नहीं होता।'
'अगर दर्द हो, तो तुम क्या करोगी?'
'तो वे दर्द की दवा ले लेंगी।'
'दवा से हर रोग नहीं जाता-'
हाँ, यह तो सच है! उस वक़्त हारुन की बात मैंने भले न मानी हो, लेकिन अब मानती हूँ। दवा से हर रोग नहीं जाता, वर्ना उसकी दी हुई पैरासिटिमॉल और मॉटलन दवा लेकर, मेरा सिर घूमना और उल्टी होना बन्द हो जाता। लेकिन मेरा रोग नहीं मिटा।
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