उपन्यास >> शोध शोधतसलीमा नसरीन
|
7 पाठकों को प्रिय 362 पाठक हैं |
तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास
बीमारी के कारण, वह परीक्षा नहीं दे सकी, इसलिए उसे एक क्लास नीचे उतार दिया गया। खैर, मुझे खुशी ही हुई थी। क्लास में मेरी एक और सहेली बढ़ गई। पापा ने बेटा न होने का कभी अफ़सोस नहीं किया।
बेटा न होने की वजह से, अगर कोई बाहरी बन्दा अफ़सोस ज़ाहिर करता, तो वे मेरी तरफ़ इशारा करके जवाब देते थे, 'यही मेरा बेटा है। इसी के जरिए, बेटे का काम चल जाता है।'
वहाँ, घर में अगर कोई बीमार हो जाता, तो मैं ही डॉक्टर बुलाती थी, दवा ख़रीद लाती थी। यहाँ तक कि बाज़ार-हाट की भीड़ में घुसकर सब्जी-तरकारी वगैरह भी ले आती थी। नूपुर को देखकर, मुहल्ले का एक छोकरा, बासू, सीटी वजाया करता था। नूपुर ने रुआंसी आवाज़ में उसके बारे में बताया। मैंने मुहल्ले के छः-सात हमउम्र लड़कों को साथ लेकर, उसके घर पर धावा बोल दिया। उसके कमरे में घुसकर, उसकी किताब-कॉपियाँ फाड़ डाली, पेन्सिल-कलम तोड़ डाला, उसे कुछेक लात-घूसे लगाए और वापस लौट आई। वैसे उस दिन सीधे घर नहीं लौटी, सुभाष के घर में, दो घंटे छिपी रही। इसके बाद, बासू ने फिर कभी सीटी नहीं बजाई। वासू के साथ नूपुर की अच्छी-खासी दोस्ती भी हो गई थी।
बचपन में, मेरा एक दल हुआ करता था। उस दल में सात लड़के और दो लड़कियाँ शामिल था। वारी के मैदान में हम लोग लाटिम, मार्बल, क्रिकेट, फुटबॉल, बैडमिन्टन वगैरह खेला करते थे और पतंग उड़ाया करते थे। मैं उस दल की लीडर थी। मुझसे दो-तीन साल बड़े लड़के भी मुझसे जीत नहीं पाते थे। वही दुर्दान्त-ऊधमी मैं, जैसे खेल-कूद में तेज़ थी, वैसे ही लिखाई-पढ़ाई में भी! क्लास की तेज़ पढ़ाकू लड़कियों में मेरा भी नाम गिना जाता था। पापा मेरी सालाना रिपोर्ट देखकर, बँचिया भर सन्देश मिठाई खरीद लाते थे।
पापा कहा करते थे, 'मुझे बेटे की ज़रूरत नहीं है। मेरी यह बेटी ही जज-बैरिस्टर बनेगी, मेरा मान रखेगी।
वैसे पदार्थ-विज्ञान, जज-बैरिस्टर होने की राह नहीं थी, फिर भी विश्वविद्यालय में दाखिला लेते ही, मैंने पदार्थ-विज्ञान लेकर ही, अपनी पढ़ाई जारी रखना चाही थी। पापा ने भी कोई एतराज़ नहीं किया। उन्होंने इस विषय की तारीफ़ ही की। हाँ, यह विषय बेशक अच्छा था। चूल्हे पर हँड़िया-पतीली कितनी डिग्री कोण पर बिठाई जाए कि वह हिलती-डुबती रहे; कितने ताप और चाप में, उसमें चावल उबाले जा सकते हैं, इस प्रयोग के लिए, यह विषय बिल्कुल सटीक था।
पापा ने विश्वविद्यालय की डिग्री हासिल की थी। चूँकि पन्द्रह साल की उम्र में विवाह हो गया, इसलिए मेरी माँ, स्कूल में चौखट पार नहीं कर पाई। लेकिन माँ को भी अपनी दो-दो बेटियों पर, कभी अफ़सोस नहीं हुआ। नाते-रिश्तेदार, अड़ोसी-पड़ोसी माँ को देखकर अफ़सोस ज़ाहिर करते थे।
|