उपन्यास >> शोध शोधतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास
अभी कुछ ही दिनों पहले, बैंक से वापस लौटते हुए, नूपुर मेरी खैरियत पूछने के लिए, इस घर में मिलने आई थी। वह सोनाली बैंक की धानमंडी शाखा में ही काम कर रही थी। उसका घर ग्रीन रोड में था। इस घर से उसका दफ्तर और उसका घर, दोनों ही एक तरह से कंकड़ फेंकने भर की दूरी पर था। लेकिन चूंकि अपने पति के साथ मेरी कोई अलग गृहस्थी नहीं थी, इसलिए मुझसे मिलने के लिए, मेरी ससुराल आने में उसे संकोच होता था, वर्ना इन डेढ़ महीनों में कुल एक बार यहाँ नहीं आती।
उसने कहा, 'मैं न सही, 'तू तो मेरे घर आ सकती है न!'
मेरे लिए उसके यहाँ अकेले जाना सम्भव नहीं था। अगर मेरा जाने का मन भी हो, तो हारुन को जब फुर्सत होगी या जब उसका मन करेगा, तब वह मुझे नूपुर के यहाँ ले जाएगा। मुझे इसे इन्तज़ार में बैठे रहना होगा, यह सुनकर नुपुर अचरज़ से भर उठी। मुझे इस तरह वह खुद देख गई कि मैं कैसी लक्ष्मी-बहू बनकर, अपनी ससुराल में बैठी रहती हूँ, कहीं भी अकेली आती-जाती नहीं। अपने पति-परमेश्वर से रात के अलावा, और किसी वक़्त मेरी भेंट नहीं होती, यह सुनकर उस जैसी चुप्पी लड़की भी अवाक् हो उठी।
उसकी आँखें मानो आसमान पर जा चढ़ीं, 'तब तेरा वक़्त कैसे गुजरता है?'
'बस, गुज़र जाता है...'
मेरा दिन कैसे गुजरता है, मैंने नूपुर से साफ़-साफ़ नहीं बताया। उसने शायद खुद ही अन्दाज़ा लगा लिया कि मेरा वक़्त कैसे गुज़रता होगा।
नूपुर उम्र में मुझसे दो साल बड़ी होने के बावजूद, मेरी दोस्त जैसी थी। जब वह कुल बारह वर्ष की थी, उसे टायफायड हो गया। बुख़ार इतना तेज़ चढ़ा कि वह लगभग मरने-मरने को हो गई। माँ-पापा दोनों ही, फ़िक्र के मारे दिशाहारा हो उठे। एक बेटी चली गई, तो सिर्फ एक ही बेटी बच रहेगी।
मुहल्ले के डॉक्टर, सफ़ी ने पापा से कहा, 'काश, आपको एक बेटा होता, तो आपका दुःख ज़रा कम होता, मैं समझता हूँ।'
हालाँकि मैं काफ़ी कम उम्र थी, फिर भी डॉक्टर की बात सुनकर, अवाक् रह गई। घर की बड़ी बेटी बीमार है, माँ-बाप अपनी बच्ची के लिए फिक्रमन्द होंगे, यह तो नितान्त स्वाभाविक है, अगर कोई बेटा होता, तो बेटी के प्रति माँ-बाप का प्यार, चिन्ता-फिक्र कुछ कम होती, यह कैसी बात? बहरहाल, नूपुर आखिरकार बच गई।
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