उपन्यास >> शोध शोधतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास
हमारा विवाह काफ़ी कुछ अचानक हो गया। हालाँकि विवाह की उम्र मेरी भी हो चुकी थी और हारुन की भी और यह भी तय था कि मैं हारुन के अलावा और किसी से ब्याह नहीं करनेवाली, इसके बावूजद, ऐसी एक घटना घटी कि हम जल्दी ही विवाह के बन्धन में बंध गए। उन दिनों विश्वविद्यालय के आख़िरी वर्ष की परीक्षा देकर, मैं खाली बैठी थी, खैर बिल्कुल खाली भी नहीं थी। संगी-साथियों के साथ अड्डेबाज़ी हस्बेमामूली ज़ारी थी, समूचे शहर की सैर-तफ़रीह तो खैर थी ही, छात्र-राजनीति में मस्त रहना भी जारी था, सिर्फ़ क्लासें करने का झमेला ख़त्म हो चुका था।
राजनीति करने पर, हारुन अक्सर हँस पड़ता था, 'छात्र-यूनियन करने से भला कोई फ़ायदा है?'
'तुम कैसे फ़ायदे की बात कर रहे हो?' 'यह दल हरगिज़ नहीं जीतेगा।'
'भले न जीते, मगर आदर्श भी तो कुछ होता है? फ़र्ज़ करो, शिविर...काफ़ी जनप्रिय है वह! मुमकिन है, चुनाव कहीं जीते तो क्या मैं भी शिविर की पार्टी में शामिल हो जाऊँ?
हारुन ने आँख मारकर जवाब दिया, 'असल में छात्र-यूनियन करना, लड़कियों को ही सूट करता है।'
'ऐसा तुम क्यों कहते हो?'
'हाँ, गाना-बजाना...'
'अच्छा?' गाना-बजाना क्या लड़के नहीं करते? तुम्हें ख़ुद भी तो गाने पसन्द हैं।'
हारुन ने बात आगे नहीं बढ़ाई।
बहरहाल, एकान्त भले न मिलता हो, लेकिन हमारे वारीवाले घर में, हारुन के साथ घंटों बैठे रहना, उसके साथ बाहर आना-जाना, रात को देर-देर से घर लौटना देखकर, आख़िर एक दिन पापा ने मुझे तलब किया।
यथासम्भव तीने लहजे में उन्होंने कहा, 'मेरी एक बात सुन ले, या तो हारुन से ब्याह कर ले या उससे मिलना-जुलना बन्द कर।'
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