उपन्यास >> शोध शोधतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास
इसके बाद, हम रोज़-रोज़ मिलने लगे। गुलशन में उसके एक दोस्त, शफीक़ का मकान था। अब हारुन कभी-कभी शाम को मुझे उसके यहाँ ले जाने लगा। रास्ता-घाट, नदी, तट, कैफे, रेस्तराँ में आख़िर कितना वक़्त गुज़ारा जा सकता है? हम इन्सानों की घूरती हुई निगाहों से बचकर, किसी आड़ में रहना चाहते थे। चाय-बिस्कुट का नाश्ता करते हुए, हम शफीक़ से गपशप किया करते थे। शफीक़ पल-भर के लिए भी कमरे से बाहर जाता, हारुन चट् से मुझे चूम लेता। मैं भी हारुन के साथ अपने दोस्त-साथियों के यहाँ अक्सर मिलने-मिलाने जाने लगी। सुभाष, आरजू, कभी चन्दना, कभी नदिया, कभी शिप्रा के यहाँ! उनमें से ही किसी को साथ लेकर, कभी-कभी हम कहीं दूर निकल जाते-मधुमुर जंगल, शाल वन-विहार, स्मृति शोध साभार के ऊपर से गुजरकर, अगर हम कहीं जाते, तो हारुन अपने कारखाने का भी एकाध चक्कर लगा आता। लेकिन वह धानमंडी, अपने घर मुझे कभी नहीं ले गया। उसका कहना था, वह अपने अब्बा-अम्मी, भाई-बहनों को, पहले से ही दिखाकर मुझे पुरानी नहीं करना चाहता। वह मुझे बहू बनाकर ही अपने घर ले जाएगा और घरवालों को चौंका देगा। खैर, दोस्तों के घर बार-बार आखिर कब तक जाया जा सकता है? उनमें से कोई भी, अलग अपने मकान में तो रहता नहीं था। एक शिप्रा को छोड़कर, सभी अपने पिता के घर ही रहते थे। अस्तु! जाने-आने की जगह की कमी की वजह से, आख्रिकार वारी में ही पनाह ढूँढ़ना पड़ा। हारुन निर्जनता चाहता था, लेकिन उसे निर्जनता देना, मेरे लिए सम्भव नहीं हो पाता था। हम दोनों जब बातचीत करते थे, कभी मेरे पिता, कभी माँ, कभी नूपुर हमारे बीच आ बैठते थे। नूपुर का बच्चा, डुगुर-डुगुर चलते हुए कीचड़-कादा लिपटे पाँवों समेत हारुन की गोद में आने को मचलने लगता था। घर का पालतू कुत्ता, हारुन को देखते ही दूँ करता हुआ, उसे गालियाँ देना शुरू कर देता। आँगन में बत्तख-मुर्गी समूचे घर में, मनमाने ढंग से फुदकते और गन्दगी फैलाते फिरते मुर्गी अपने पीछे-पीछे पिलपिलाते चजों की फौज लिए. घर के असबाब-पत्तर आराम से दखल कर लेती। हारुन बैठे-बैठे ये सभी दृश्य देखता रहता और मेरी तरफ़ असहाय नज़रों से देखा करता था।
वह अक्सर उलाहने देता, 'बिल्कुल सूखी-सूखी, नीरस बातें करना अच्छा लगता है भला!'
'रसीली बातें कैसी होती हैं, जरा सुनूं।'
'यही...ज़रा चुमा-चाटी! ज़रा प्यार! ज़रा छातियों पर....'
हारुन की ये बातें सुनकर मैं बेतरह काँप उठती थी। खैर, मेरी वह उम्र ही काँपने-सिहरने की थी। मेरी वह उम्र ही ऐसी थी कि हारुन सिर से पाँव तक भला-भला लगे। उसकी हल्की-सी छुअन पाकर मैं मुग्धता के सागर में तिर-तिर काँपने लगती। जब वह गाड़ी भी चलाता था, अपने बाएँ हाथ में मेरी हथेली थामे रहता और दाहिना हाथ स्टीयरिंग पर होता। गीयर बदलते वक़्त भी वह मेरे हाथ पर से अपना हाथ नहीं हटाता था, दाहिने हाथ से ही गीयर बदलकर, वह दुबारा स्टीयरिंग पकड़ लेता।
उसी हारुन...उसी हारुन के लिए अब मेरा मन...और शरीर जागता रहता था। काश, और-और लम्बे समय तक मुझे उसका स्पर्श मिल जाता। उसका वह हाथ थामे रहना! अब जो हर रोज़, हारुन मुझे गहराई तक छूता है, अक़्सर रातों को मेरे अतल में समाँ जाता है, फिर भी...फिर भी मुझे लगता है, उन दिनों के उस मामूली से स्पर्श के मुक़ाबले, यह कुछ भी नहीं है। वही बेहतर था...वह हल्का-फुल्का स्पर्श!
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