उपन्यास >> शोध शोधतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास
यह बात साफ़ ज़ाहिर थी कि हारुन जिस नज़र से मेरे जीवन को देखना चाहता है, मैं उस तरह से अपनी ज़िन्दगी नहीं गुज़ार रही हूँ। हारुन के पास ढेर-ढेर दौलत है। उसके कारखाने में दो सौ कर्मचारी काम करते हैं। कोई भी बन्दा उससे आँखें मिलाकर, बात करने की हिम्मत नहीं करता। वे तो चेहरा झुकाए, सिर झुकाए रहते हैं। हारुन जो हुक्म देता है, दो सौ कर्मचारी उसे अक्षर-अक्षर पूरा करते हैं। हारुन बाईं तरफ़ ही चलते जाएँगे। हारुन अगर हुक्म दे-कड़ी धूप में, एक पैर पर खड़े रहो! वे लोग यही करेंगे। इतने-इतने अनुगामी लोगों को देखते-देखते, अब उसे इसकी आदत पड़ चुकी है कि वह अपने घर की बीवी भी उस पर निर्भर करे। आखिर वह क्यों चाहे, क्यों देखे कि उसकी बीवी अचानक उसके हुक्म के खिलाफ़ सिर उठाए? बीवी को वह बाएँ जाने को कहे और बीवी दाहिनी तरफ़ क़दम बढ़ाए? हारुन बिस्तर पर करवटें बदलता रहा। मैंने गौर किया, उसकी आँखों से नींद उड़ गई थी।
हारुन की बग़ल में लेटी-लेटी, खिड़की पर आँखें गड़ाए, मैं भोर को उजलाते हुए देखती रही और सोचती रही कि यह सच है कि मैं हारुन की बीवी हूँ, लेकिन मर्द को महज अंग-सुख देने के लिए, मैं अपने को घर की बाँदी नहीं बना सकती। मैं अपने को ऐसी दासी बनाने को कतई राजी नहीं थी, जिसके लिए सिर्फ कमरों के धूल-जाले झाड़ना, खाना पकाना, बच्चे पैदा करना, बच्चों को पाल-पोसकर बड़ा करना और मर्द की शारीरिक और मानसिक प्यास बुझाने के अलावा और कोई काम नहीं होता। मैंने ऐसी किसी शर्त में बँधकर, हारुन से विवाह नहीं किया।
पापा ने एक दिन कहा था, यह ज़िन्दगी तुमने पसन्द की है। तुमने ऐसी ही ज़िन्दगी चाही थी। तुमने खुद ही ऐसी ज़िन्दगी चुनी। खैर, अपना व्यक्तित्व टिका रहे, इस तरीके से जीने की कोशिश करना।
पति की दौलत पर खा-पहनकर, अपने व्यक्तित्व को टिकाए रहने की मैंने
सैकड़ों कोशिशें भी की, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। असल में ऐसा मुमकिन भी नहीं है। कोई मुझे पाले-पोसे और मुझ पर रौव भी न डाले, यह नामुमकिन है। यह सच है कि पापा की हर बात से मैं सहमत नहीं हूँ। अब मुझे लगता है कि पापा का यह हुक्मनामा किसी भी अर्थ से सही नहीं था। उन्होंने एक हुक्म जारी कर दिया-चूंकि मैं हारुन के साथ घूमती-फिरती रही हूँ, इसलिए मुझे उसी से विवाह करना होगा सच तो यह है कि पापा जैसे उन्मुक्त इन्सान के भी अचेतन मन में कुछेक संस्कार छिपे पड़े थे। हारुन से विवाह करने का फैसला लेने से पहले, उसे कुछ और जानना पहचानना चाहिए था। प्यार तो खैर, आवेग के पलों में हो जाता है लेकिन साथ-साथ ज़िन्दगी गुज़ारने का फैसला लेना, आवेग पर निर्भर नहीं करता। यह ठीक भी नहीं है। भोर का उजाला, मेरे तन-बदन पर लोटने लगा। रात-भर सो न पाने के बावजूद, मुझे अपना आप बेहद स्निग्ध, बेहद शुद्ध और तरोताज़ा लगा।
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