उपन्यास >> शोध शोधतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास
तमाचा-प्रसंग के प्रति कोई उत्साह न दिखाकर, हारुन ने कहा, 'नौकरी करने का ढिंढोरा तो पीट रही हो मगर नौकरी करोगी कैसे? आनन्द के बार में नहीं सोचा? उसे स्कूल से लाना-ले जाना वगैरह कौन करेगा?'
'मैं करूँगी! तुम करोगे! हबीब भी कर सकता है।'
‘और आनन्द को नहलाना-धुलाना? उसकी देखभाल, यह सब?
'घर में आनन्द के कामकाज के लिए अलग से नौकरानी मौजूद है। इसके अलावा, सासजी हैं। मैं भी कोई दिन-भर के लिए तो हवा नहीं हो जाऊँगी। मेरी क्लास शाम की है। इससे पहले, आनन्द को मैं स्कूल से ले आऊँगी। तुम ये सब बातें सोच-सोचकर परेशान न हो तो।'
हारुन में साफ़-साफ़ यह कहने की हिम्मत नहीं हुई कि तुम नौकरी नहीं कर सकतीं, तुम्हें नौकरी करने की इज़ाज़त मैं नहीं दूंगा। वह एकदम से मना नहीं कर पाया, क्योंकि उसकी निगाहों में अब मैं पहले जैसी निरीह. गऊ किस्म की औरत नहीं रही। उसकी कुछ कहने की हिम्मत इसलिए भी नहीं हो पाई क्योंकि अपने लिए नौकरी जुटाने की योग्यता मुझमें मौजूद थी। किसी और पर निर्भर हुए बिना ही, मैं काफ़ी कुछ कर गुजरने का दम रखती हूँ।
आनन्द सिर्फ तुम्हारा ही बेटा नहीं है, मेरा भी बेटा है! किस बात में उसकी भलाई है, इसकी फिक्र अकेले तुम ही नहीं करते, मैं भी करती हूँ।'
काफ़ी देर तक खिड़की की तरफ़ अपनी उदास निगाहें गड़ाए रहने के बाद, हारुन ने अगला सवाल किया, 'तुम्हें क्या रुपए-पैसों की तंगी हुई है?'
'रुपए-पैसों की तंगी भला क्यों होने लगी? तुम तो मुझे रुपए देते ही रहते हो।'
'फिर?'
'वे तो तुम्हारे रुपए हैं! मेरे तो नहीं हैं न! खुद रुपए कमाने का अहसास कैसा होता है, मुझे भी तो यह जानने का मन होता है। अपने.....बिल्कुल अपने रुपयों की सूरत कैसी होती है, ख़र्च करते हुए कैसा लगता है, इन सबका स्वाद लेने की चाह, मुझे भी होती है। मेरा भी मन करता है, मैं अपनी कमाई के पैसों से तुम्हें कुछ भेंट करूँ। आनन्द के लिए कुछ खरीदूं अपने माँ-पापा को कोई गिफ़्ट दूं। जैसे तुमने अपने माँ-बाप की जिम्मेदारी सम्हाली है, मेरा भी तो जी चाहता है कि पूरा-पूरा न सही, थोड़ी बहुत ही सही, मैं भी अपने माँ-बाप के प्रति, अपनी जिम्मेदारी पूरी करूँ।'
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