उपन्यास >> शोध शोधतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास
मैंने और हारुन, सब्जी-तरक़ारी के बाज़ार में जाकर, दुनिया भर का सौदा ख़रीद लाए हैं। सनी और सकीना ने किस्म-किस्म के पकवान तैयार कर डाला। शाम को एक-एक करके मेहमान आ जुटे। छुट्टी का दिन! हारुन को दफ़्तर भी नहीं जाना था। पायजामा-कुर्ते में सजा-धजा, बदन पर ख़ुशबूदार सेन्ट छिड़ककर और होंठों पर स्निग्ध हँसी झुलाकर, आगे मेहमानों की अभ्यर्थना की। मैं मानों पहले बैसाख़ यानी नए साल का जश्न मना रही होऊँ। लाल किनारेदार, शुभ्र-श्वेत साड़ी में सजी-धजी, बालों में बेल फूलों की माला लपेटे और होठों पर मन्द-मन्द मुस्कान लिए अपने दोस्तों के पास आ बैठी। उस वक़्त अपने व्यर्थ-प्राणों के तमाम कूड़ा-कर्कट-कचरा हटाकर, मेरे मन में उत्साह की आग धधक उठी। हालाँकि अब सुभाष, आरजू और नादिरा से पहले की तरह अक्सर भेंट-मुलाकात नहीं होती, पहले की तरह गपशप का अड्डा भी नहीं जमता, लेकिन दोस्ती में कहीं, कोई कमी नहीं आई है। अर्से बाद, सारे यार-दोस्त मेरे यहाँ इकट्ठा हुए थे, इसलिए पहले की ही तरह गपशप में मशगूल हो उठे। मैं, पहले उन लोगों के विच्छेद का कारण बन गई थी, आज मिलन का सेतु बन गई। पहले तो वे लोग हारुन के सामने सिमटे-सकुचाए नज़र आए, मगर हारुन ने तरह-तरह से जब यह समझाने की कोशिश की, कि इतने सालों जो मैंने उन लोगों से रिश्ता नहीं रखा, उसमें हारुन की नहीं, मेरी मर्जी शामिल थी, तब वे लोग धीरे-धीरे सहज हो आए।
बहरहाल, मेरे यार-दोस्त, किसी ज़माने में काफ़ी मिलनसार और खुशदिल समझते थे, वैसा आज भी समझें, इस इरादे से मैंने सारा दोष-पाप, अपने कन्धों पर ले लिया।
मैंने उसे अपने क़रीब खींचकर, प्यार भरे लहज़े में फ़र्माइश की, ए जी चलो न, हम दोनों, कहीं दूर जाकर, कोई गीत छेड़ दें।'
हारुन एकदम से ना-ना कर उठा, भई, मुझे क्या गाना आता है? तुम ही गाओ। 'अरे नहीं, नहीं, तुम्हें गाना ही होगा। चलो, वह गीत शुरू करो-धीरे-धीरे बहो, ओ हवा उत्ताल....। काफ़ी-काफ़ी। अर्से बाद हारुन ने मेरे साथ सुर छेड़ा। उस गीत के बोल, अब न मुझे याद रहे थे, न हारुन को। नादिरा बताती गई। एक गीत से, दूसरा गीत जाग उठा।
सुभाष गा उठा-'आज नहीं, कल नहीं, परसों-विभावरी सूरज तो उगेगा ही!' मैं भी उसके साथ गा उठी। हम दोनों के साथ, बाकी लोग भी! यह गीत, नुपूर, सुभाष और सुजीत को साथ लेकर, मेरे पापा गाया करते थे। गाना ख़त्म होने के बाद, मेरा मन हुआ कि सुजीत का प्रसंग छेडूं। लेकिन सुभाष कहीं गहरी उदासी में न डब जाए। नहीं. आज दःख का कोई प्रसंग नहीं छेडेंगी। आज कोई दःखद बात नहीं! आज सिर्फ सुखद बात! सिर्फ़ आनन्द! लेकिन मेरे मन में एक आशंका जाग उठी। सुभाष क्या अपनी माँ को लेकर देश से बाहर चले जाने की बात सोच रहा है? वह क्या यह सोच रहा है कि यह देश, उन लोगों के लिए सुरक्षित नहीं रहा?
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