उपन्यास >> शोध शोधतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास
पहले दिन सबको मिठाई खिलाई गई। लेकिन इतने-से हारुन सन्तुष्ट नहीं हुआ। उसने तय किया कि जिस दिन मैं अस्पताल से विदा लूँगी, उस दिन सबको विरियानी खिलाई जाए। वैसे अस्पताल में मुझे और दो-चार दिन रहना था। राह चौड़ी बनाने के लिए, मेरे गुप्तांग को दोनों किनारों से एक-एक इंच चीरना पड़ा था। अब वहाँ टाँके लगा दिए गए हैं। टाँके सूखने के बाद ही मुझे अस्पताल से रिहाई मिलेगी। टाँकों की वजह से जो-जो ज़रूरी है, मसलन मुझे गर्मपानी पर बिठाना, टाँकों पर मलहम लगाना-यह सारा कुछ, हारुन खुद कर रहा था। हारुन ही मुझे सहारा देखकर बाथरूम तक ले जाता था। बाकी वक़्त, वह बच्चे के साथ ही होता था। बच्चे को पानी पिलाना, दूध पिलाना, बच्चे की नैपी बदलना-सब कुछ, वह अपने हाथों से करता था। मैं सो रही होती, बच्चा भी सो रहा होता, अकेले हारुन की आँखों में नींद नहीं थी।
'सुनो, तुम्हें तकलीफ़ हो रही होगी। तुम घर जाकर ज़रा आराम कर लो! थोड़ा सो लो। रात को मेरे पास, न हो तो नूपुर या माँ रह जाएगी।' मैंने कई बार कहा।
'भई, बेटा जब मेरा है, तो तकलीफ़ भी मुझे ही करनी होगी न! वैसे इसमें मुझे कोई तकलीफ़ भी नहीं हो रही है। यह तो सुख है! भरपूर सुख!'
मेरे ब्याह को इतना लम्बा अर्सा गुज़र गया, हारुन को मैंने कभी, इतने क़रीब नहीं पाया। इन दिनों वह एक बार भी दफ्तर वगैरह का नाम तक नहीं लेता, मानो न उसे कारोबार से मतलब है, न दफ्तर से! उसका बस, एक ही परिचय है-वह बेटे का बाप है!
हारुन पर क्या मुझे तरस खाना चाहिए? मैं उसकी नींद-जगी, थकी-थकी, मगर ख़ुश-ख़ुश आँखों की तरफ़ देखते हुए, सोचती रहती हूँ, मुझे क्या पछतावा होना चाहिए? क्या मुझे उससे माफ़ी माँगनी चाहिए- 'मुझे माफ़ कर दो, मुझसे गुनाह हो गया-'? लेकिन, जिस गुनाह के लिए मैं माफ़ी माँगने जाऊँगी, उसकी सज़ा तो मुझे बहुत पहले ही मिल चुकी है। एक ही गुनाह के लिए मैं दो-दो बार सज़ा क्यों क़बूल करूँ?'
अस्पताल में सन्तान-जन्म का जश्न जब पूरा हो गया, जब मेरे टाँके भी सूख गए, तो मैं घर लौट आई।
समूचा घर फूलों से सजा हुआ! बच्चे के गृह-प्रवेश का उत्सव धूमधाम से मनाने के लिए, यहाँ तैयारियाँ की गई थीं। हारुन के नाते-रिश्तेदार शुभागत बच्चे को देखने के लिए, बारी-बारी से आते रहे। उसे उपहार देते, खाते-पीते, नाचते-गाते जश्न मना रहे थे। चारों-तरफ़ उत्सव का माहौल! इस घर में मेरी क़द्र और बढ़ गई थी। अब मैं सिर पर आँचल डाले, सिर्फ कुलवधू ही नहीं रह गई थी। आज मैं ख़ानदान के चिराग की माँ बन चुकी हूँ और यह कोई जो-सो बात नहीं है।
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