लोगों की राय

उपन्यास >> शोध

शोध

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3010
आईएसबीएन :9788181431332

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

362 पाठक हैं

तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास


मुझे अपने लाचारी पर रुलाई आ रही थी। पापा तो मुझे हर पल यही सीख देते रहे कि मैं लिख-पढ़कर विद्वान् बनूँ, अपने पैरों पर खड़ी होऊँ। लेकिन मैंने
लिखना-पढ़ना तो सीख लिया, विदुषी भी बन गई, लेकिन दूसरे के आसरे-भरोसे बैठी हुई हूँ। महज़ एक चीज़ की तरह अचल बैठी हुई हूँ। दूसरों पर निर्भर लोगों की कोई अलग ज़िन्दगी नहीं होती। मैं पिछले दिनों को याद करके रोती हूँ। पुरानी बातों को याद करके रोती हूँ।

उन दिनों मेरी माँ कहा करती थीं, 'मुझे बेटा नहीं चाहिए, मेरी बेटी ही भली!'

पापा कहा करते थे, 'मैं अपनी बेटियों को ही दूध-मक्खन-पनीर खिलाकर बड़ी करूँगा। वेटियों को ही लिखा-पढ़ाकर इन्सान बनाऊँगा! मुझे बेटा नहीं चाहिए। मेरी बेटियाँ ही हमारे बुढ़ापे में, हमारी देखभाल करेंगी।

दूसरों पर निर्भर बेटी में इतना बलबूता कहाँ है कि अपने पिता की देखभाल करे? पापा ने यह कभी नहीं चाहा कि मैं उनकी मोहताजी में उन्हें खिलाऊँगी-पिलाऊँगी! मेरे पापा, मेरे पैसों पर अपनी गृहस्थी चलाएँगे। पापा हमेशा से ही बेहद अहंकारी इन्सान रहे हैं। एक बार उन्हें रुपयों की जरूरत पड़ी थी। लेकिन उन्होंने अपने किसी रिश्तेदार के सामने हाथ नहीं फैलाया। उन्होंने विक्रमपुर वाली अपनी ज़मीन, पानी के मोल वेच दी। मैंने अपने पापा को देखा है वे अपने आदर्श पर हमेशा अविचल रहे, अपने व्यक्तित्व को बचाए रखा। अब उनके पेंशन के रुपयों से ही पूरी गृहस्थी चलती है। हाँ, उनकी गृहस्थी में अभाव तो है, मगर अभावबोध नहीं है।

नूपुर को क्या अन्दाज़ा हो गया है कि इस चारदीवारी में बन्द कमरे की हवा में बेहद घुटन है? वर्ना वह उठकर, कमरे की खिड़कियाँ खट् से खोल क्यों देती? खिड़की की राह आती हुई हवा में वह लम्बी-लम्बी साँसें क्यों ले रही है?

माँ ने मुझे अपने बेहद करीब खींचकर कहा, 'मैं तेरे जितनी लिखी-पढ़ी तो हूँ नहीं, इसीलिए कभी कहीं नौकरी-चाकरी करने के भी क़ाबिल नहीं बन सकी। लेकिन तू क्यों निकम्मी, हाथ पर हाथ धरे बैठी है?'

'अरे! मेरा शरीर नहीं देखती? मेरी कोख में क्या पल रहा है, नहीं देखा?'

माँ के सूखे-मुझाए होंठों पर मुस्कान झलक उठी। मेरी बेतुकी बातों पर वे हँस दीं। इतना सब देख-सुनकर, मेरे माँ-पापा यह सोच लें कि बेटी अमीर घराने में, काफ़ी सुख से है, ऐसा नहीं है। वे लोग किसी गलतफहमी में नहीं हैं, इसका मुझे बखूबी अन्दाज़ा हो गया।

वारी में, हमारे पड़ोस में किसी बेहद अमीर शख्स का भी मकान था। वह शख्स लोगों की आँखों में धूल झोंककर, कमाई करता था। जब भी मैं कहती थी-वह काफ़ी बड़ा आदमी है। पापा मुझे फ़ौरन सुधार देते-बड़ा नहीं, अमीर आदमी!

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पाँच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. पन्द्रह
  15. सोलह
  16. सत्रह
  17. अठारह

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book