उपन्यास >> शोध शोधतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास
'देखने में, मैं बेहद उद्भट लग रही हूँ न? लग रहा होगा, मैं जैसे मैं नहीं हूँ।'
'तुम बेहद बदल गई हो।' नूपुर ने कहा
'बदल गई हूँ?' मैं हँस पड़ी।
पता नहीं, वह हँसी मेरे होठों पर हँसी जैसी नज़र आई या नहीं।
'मैंने क्या कभी कहा था कि मुझे बच्चा-बच्चा नहीं होने वाला?'
नूपुर के चेहरे पर उदास हँसी झलक उठी।
माँ ने आँचल से अपने आँसू पोंछे। पापा बुझे-बुझे-से एक कोने में बैठे रहे। काफ़ी लम्बे अर्से से मैं अपने घनिष्ठ लोगों से बिल्कुल अलग थी। अचानक, एक दिन मैंने सबको बुला भेजा। वह भी उस वक़्त, जब मैं बिल्कुल पहले जैसी स्थिति में नहीं हूँ। इस वक़्त बेढब-सी देह लिए चल-फिर रही हूँ; कमर पकड़कर बिस्तर पर बैठती हूँ; हाँफ जाती हूँ।-मैं बिल्कुल अलग नज़र आ रही हूँ। लेकिन इस वजह से मैं सचमुच तो बदल नहीं गई। मैं वही पहले वाली झूमुर हूँ। कम-से-कम मन से तो वही हूँ। इन दिनों, मैं सिर-पाँव तक गृहवधू हूँ। मुझे यह भी मालूम है कि अपने इस रूप की कभी कल्पना भी नहीं की थी, शायद मेरे माँ-बाप-बहन ने भी नहीं की थी। मुझे तो और तरह का होना चाहिए था। सास के क़दमों की आहट सुनकर, मुझे सिर पर आँचल नहीं डालना चाहिए था।
'क्या बात है? सब लोग इतने उदास-उदास से क्यों बैठे हैं? अरे, हँसो, खुश हो जाओ। मेरा शौहर ढेरों कमा-धमा रहा है, मुझे बेहतर से बेहतर ख़िला-पहना रहा है! मेरे बच्चे की भी परवरिश कर पाएगा। तुम लोग खुश क्यों नहीं हो रहे हो?'
'तू चुप कर तो!' नूपुर ने डपट दिया।
'क्या बात है? इतने दिनों तक तुम लोगों से कोई रिश्ता-नाता नहीं रखा, इसलिए तुम लोगों ने यह सोच लिया कि तुम लोगों को मैं याद नहीं करती? तुम लोगों को मैं प्यार नहीं करती?'
अचानक मैं ज़ोर-ज़ोर से रो पड़ी। पापा-माँ के सीने से लगकर, बहन से लिपटकर मैं बेतरह रो पड़ी। मैं जी भरकर रोती रही।
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