उपन्यास >> शोध शोधतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास
फोन पर बातें करते-करते एक दिन अचानक ही हारुन ने कहा, 'इस तरह अब अच्छा नहीं लगता।
'मतलब?'
'आमने-सामने बैठना चाहता हूँ।'
'उससे क्या होगा?'
‘और कुछ नहीं तो, मन तो भर उठेगा।'
'यानी अभी मन नहीं भर रहा है? इतनी-इतनी बातें? इतने-इतने गाने...?'
'ना, जब तक आँखों में आँखें डालकर बातें न करो, लगता है जैसे कुछ बाक़ी रह गया।
इसके बाद, हम दोनों विश्वविद्यालय के अहाते में मिले। मुझे उस अहाते से ही अपनी सफ़ेद टोयटा में बिठाकर वह अपने दफ्तर ले आया। उसका दफ्तर काफ़ी सजा-सँवरा और व्यवस्थित था। हारुन वहाँ जिस कमरे में बैठता था, सबसे अच्छा मुझे यह लगा कि वहाँ फूलदान में ताज़ा फूल सजे हुए थे। ताज़ा गुलाब!
उसमें से कुछ फूल मेरे बालों में खोसकर, कुछ मेरी गोद में बिखेरकर, उसने कहा, 'यह सब तुम्हें ही शोभा देता है।'
मैं फूलों के जश्न में चुपचाप बैठी रही। हारुन की उत्तेजना देख-देखकर मुझे बेहद अच्छा लग रहा था। वह थोड़ी-थोड़ी देर में पिउन को आवाज़ दे-देकर तरह-तरह के ख़ाने लाने की फ़र्माइश करता रहा। मैं क्या लूँगी, चाय या कॉफ़ी या सेवन अप? चिकेन-बन, पिज्जा, क्लब सैंडविच? खाने में मेरी कोई रुचि नहीं थी। मैं तो सिर्फ़ हारुन को निहार रही थी; उसकी दोनों खूबसूरत आँखें देख रही थी! मेरी आँखों में थोड़ी-थोड़ी मुग्धता भी समाती जा रही थी।
'हमारी आँखों में आँखें डालकर बात करना तय हुआ था! अभी तो वह काम ही पूरा नहीं हुआ-'हारुन होंठ दबा कर हँस पड़ा।
उसकी वह हँसी मुझे कहीं गा रे तक छू गई। हाँ, बेहद गहरे तक छू गई थी, वर्ना इनती दूर तक क्या कोई शौक़ से बढ़ सकता है।'
अब हारुन तरह-तरह के कामों में व्यस्त रहने लगा है। लेकिन उन दिनों वह दफ्तर गोल कर देता था और सीधे कज़न हॉल चला आता था, पदार्थ विज्ञान विभाग में! क्लास ख़त्म होते ही, जैसे ही मैं बाहर आती थी, एक अदद सुदर्शन नौजवान, मेरे इन्तज़ार में खड़ा मिलता था। चेहरे पर स्थित मुस्कान! आँखों पर चूँकि धूप का चश्मा चढ़ा होता था, इसलिए आँखों की हँसी नज़र नहीं आती थी। वे पल कितने मोहक लगते थे! मेरा मन होता था क्लास के सभी लड़के-लड़किय देखें, आँखें फाड़-फाड़कर देखें, मेरे इन्तज़ार में कोई खड़ा रहता है! मैं सिर्फ अच्छी छात्रा, अच्छी नेत्री ही नहीं, अच्छी प्रेमिका भी थी। हारुन मुझे लेकर सिर्फ़ क्लास के सामने से ही फुर्र नहीं होता था, मैं दीवार पर अपनी पार्टी के पोस्टर चिपका रही होती, लाइब्रेरी के मैदान में अपने संगी-साथियों के साथ बैठी, मैं अड्डा दे रही होती, कैन्टीन में बैठकर मैं चाय पी रही होती, हारुन आ धमकता था। इस सबके बीच से वह मुझे उठा ले जाता। गाड़ी में मुझे अपनी बग़ल में बिठाकर, सिगरेट सुलगाता। होठों में सिगरेट दबाकर वह बोलता-बतियाता रहता। यह सब मुझे बेहद अच्छा लगता। हारुन जब मेरे हाथ पर हाथ रखता, मुझे अपने हाथ बेहद खूबसूरत लगते थे। मेरा हाथ छू-छूकर हारुन को भी जरूर अच्छा लगता होगा, मैं हारुन बनकर अपने को महसूस किया करती। हम अक़्सर कहीं सुदूर निर्जन में निकल जाते। निर्जन हरियाली के प्रति हारुन बेहद पक्षपाती था, मैं भी! कहीं दूर, हम दूर-दूर तक तैरते रहते। बूढीगंगा पुल के पार, हम अक्सर धलेश्वरी नदी के तट पर बैठे रहते थे।
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