उपन्यास >> शोध शोधतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास
इतने पर भी हारुन का गाना सुनने का आग्रह कम नहीं हुआ। वह अक्सर ही मुझे फोन करता रहा और इधर-उधर की बातों के बाद, गाना सुनाने की ज़िद करता था। खैर, मुझे गाना सुनाना ही पड़ता था। मैं अकेले में गाती हूँ, सिर्फ अपने लिए, अपनी दुनिया में, हारुन यह बात मानने को राजी नहीं था। बातों की ज़ोर-ज़बर्दस्ती से वह मुझे गाने को लाचार कर देता था। मैं भी उसकी भारी-भारी आवाज़ की आकुलता के आगे या अपने ही थोड़े-बहुत कौतूहल के आगे, अवश हो आती थी। मैं भी सोचने लगी, देखू तो सही क्या होता है, यह संवाद आखिर कहाँ तक पहुँचता है। उसके बाद, वह ख़ुद ही इस-उस गानों की चर्चा छेड़ देता। वो गीत है न...मैं कान लगाए सुनूँ...' फागुन हवा में, दू-र, कहीं दूर, कहीं दूर! एक दिन उसने एक और गीत का नाम लिया...'मेरा मन माने ना-'
'अचानक मन में यह कैसी दुर्घटना हो गई?' मैंने पूछा।
लम्बी उसाँस भरकर हारुन ने जवाब दिया, आप जैसी निर्मम महिला यह नहीं समझेगी।'
आख़िर मैंने उस गाने की दो पंक्तियाँ गुनगुना दी।
'कैसा आँधी-तूफ़ान उठा है, देख रही हैं? ज़रा वो गाना तो सुनाइए- आज आँधी-तूफ़ान की रात, तुम्हारा अभिसार।'
मैंने वह गाना भी गुनगुना दिया। साथ ही मैंने यह सवाल भी किया, 'जनाब, मैं क्या आपके लिए किराए की गायिका हूँ, जो गा-गाकर अपने मालिक का मन बहलाऊँगी और मान रक्षा करूँगी?'
इसके बाद हारुन को ही गाना पड़ता। वैसे गाना-वाना उसे खास नहीं आता था, मगर वह गाने की कोशिश ज़रूर करता था। सबसे ज़्यादा अचरज की बात. यह थी कि वह काफ़ी देर-देर तक मेरे गाने सुना करता था। किसी-किसी दिन तो पाँच-छ: घंटों तक फोन पकड़े बैठा रहता था। मैं एक के बाद एक गाती जाती और मुग्ध श्रोता की तरह सुनते-सुनते, हारुन वाह-वाह किया करता था।
'आपके गले में तो जादू है! नहीं, मैं सच कह रहा हूँ-'
अचरज़ की बात यह थी कि अब हारुन मेरा गाना बिल्कुल नहीं सुनता। विवाह के बाद, उसने एक दिन भी मुझसे गाना गाने को नहीं कहा। अपने कमरे में, कुछ-कुछ गुनगुनाती रहती थी मैं। वह अजीब आँखों से मुझे घूरता रहता था, मानो उसे इस बात की जानकारी भी नहीं थी कि मैं गा भी सकती हूँ। उसकी आँखों में थोड़ा-बहुत हिकारत और हिदायत ज़रूर होती थी, मानो मेरी आवाज़, बग़ल में बैठे बड़े-बूढ़े के कानों तक पहुँची, तो कहीं कोई मुसीबत न खड़ी कर दे।
परिचय के पहले के तीन महीने, हम दोनों ने गाने में गुजार दिया। दो गीत मैं बहुत ज़्यादा गाती थी-'फिर भी रखना याद, पूरी हुई मन की वासना!' भई, मन की वासना क्या, कभी पूरी होती है? जानती हूँ, कभी पूरी नहीं होती, मुझे गाना अच्छा लगता है। यह गीत गाते हुए, मन को कुछ पा जाने के अहसास से जी भर उठता है। ऐसा क्या मिल जाता है? असल में कुछ मिलता भी है या नहीं? या सब कुछ झूठमूठ है? कुछ नहीं मिलता, फिर भी मैं सोचती रहती हूँ कि बहुत कुछ मिल गया। पाने का अहसास होगा या न पाने के दुःख को ही कुछ पाना समझ लेना और मन-ही-मन दुःख महसूस करना।
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