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शोध

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3010
आईएसबीएन :9788181431332

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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास


उन्होंने चीखकर कहा, 'यह हारुन न! हर बात में हद करता है। ऐसा लग रहा है, जैसे वह आज ही बाप बन गया है। अभी तो बच्चा पेट में आया भर है। अरे, भई, बच्चा हो तो लेने दो। अभी पूरे नौ महीने पड़े हैं। नौ महीने में अभी तो जाने कितनी ही आफ़त-विपदा...! क्या करेगा, अगर तीन महीने में ही बच्चा गिर जाए...?

कुमुद फूफी बौखलाई हुई थीं। घर में जश्न का माहौल देखकर, वे और ज्यादा बौखला गईं।

इस उत्सव के दौरान दोलन भी आ धमकी। अनीस नहीं आया? इन दिनों वह बेहद व्यस्त है, इसलिए नहीं आ सका।

भूखे सुमइया के मुँह में मिठाई ठूसते हुए, उन्होंने बताना शुरू किया, 'सुमइया के अब्बू ने टीले के ऊपर, एक घर किराए पर ले लिया है। कारोबार काफ़ी मजे में चल रहा है। दिन-रात काफ़ी व्यस्त रहता है। चटगाँव से तो हिलने का भी उपाय नहीं है। हसन का इलाज कैसे चल रहा है, उसकी देखभाल ठीक तरह हो रही है या नहीं। इन बातों की काफ़ी फिक्र लगी थी, सो चली आई। सुमइया के अब्बू ने मुझे बार-बार आगाह किया है कि मैं हफ्ते-भर में लौट आऊँ। अपनी गृहस्थी छोड़कर ज्यादा दिनों क्या बाहर रहा जा सकता है भला?'

'हाँ, सो तो है! नहीं रहा जा सकता। मैंने कहा।

'उनके साथ दो बन्दे और भी हैं। जहाज से माल लाने-ले जाने का कारोबार है। बुद्धि न हो, तो ऐसा कारोबार करना, किसी के भी बूते की बात नहीं है। सुमइया के अब्बू जैसा बुद्धिमान भला और कोई हो सकता है? मैंने घरवालों से कहा नहीं था कि वह इन्सान अगर किसी काम पर आमादा हो जाए, तो उसे कोई नहीं हरा सकता। देख लिया न?'

'वा-ह! तुम्हारी तो क़िस्तम ही चमक गई, दोलन!'

'तुम भी क्या बात करती हो, भाभी? सास-ससुर से मुझे अलग रहना पड़ेगा, यह सोच-सोचकर तो मैं दुः.ख से मरी जाती हूँ! सुमइया के अब्बू ढाका आ जाएँ, तो मैं ससुराल जाऊँगी।'

हारुन ने रविन्द्र-संगीत का टेप लगा दिया। ज़ोर-ज़ोर से गीत गूंज उठा। कनिका जी का गाया हुआ गीत-'हृदय वासना पूर्ण हुई...' हारुन बार-बार बजाता रहा। कनिका के साथ मैं भी, हृदय वासना पूर्ण होने का राग गुनगुनाती रही, जव हारुन मुझे, बाँहों में कसकर, छाती पर उभरे लाल-लाल निशानों को चूम रहा था। उसे यकीन था कि उसके चुम्बनों से एलर्जी के सारे निशान मिटते जा रहे हैं।

शाम को हारुन ने कहा, 'सुनो, अपनी सहेली, सेवती को, आज रात खाने पर बुला लो। आज हम साथ-साथ खाना खाएँगे।'

'सिर्फ़ सेवती को ही क्यों, उसके पति को भी बुला लेते हैं।'

हारुन, खुद जाकर, सेवती और उसके पति को, रात को अपने यहाँ खाने की दावत दे आया।

अब सेवती की और ज़्यादा ज़रूरत है, हारुन यह बखूबी समझता था।

हारुन के साथ-साथ बैठकर खाने का मौका, मुझे शायद ही कभी मिला हो। हारुन, हवीब, ससुरजी वगैरह घर के मर्दो के खाने के बाद ही मैं खाना खाती हूँ। आज पहली बार, इस घर में, हारुन ही क्यों, पराए मर्द के साथ भी मैं खाना खाने बैठी थी। सासजी का पकाया हुआ पुलाव-गोश्त खाते-खाते, मेज पर गपशप का अड्डा खासा जम उठा। सेवती के अस्पताल, हारुन के कारोबार, अनवर के एन. जी. ओ. का प्रसंग छिड़ने के पहले, हारुन ने ख़ुशख़बरी दे डाली।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पाँच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. पन्द्रह
  15. सोलह
  16. सत्रह
  17. अठारह

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