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शोध

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3010
आईएसबीएन :9788181431332

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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास


मैंने हारुन से पूछा, 'मैं जाऊँ?'

'जरूर जाओ। माँ ले जा रही हैं. भला जाओगी क्यों नहीं?'

सिर पर आँचल डाले, घर की लक्ष्मीबहू, कुमुद फूफी के घर भी हो आई।

मेरे न जाने पर, नूपुर उदास हो गई और माँ-पापा भी नाराज़ हो गए।

'झूमर बदल गई है। अब उसके ससुराल वाले ही अब उसके सगे हैं, हम कुछ नहीं हैं-' फफक-फफककर रो पड़ी।

पापा अपने कमरे में बुझे-बुझे-से बैठे रहे। बेटी की सालगिरह के दिन, नूपुर ने उसके गाल पर कसकर एक थप्पड़ जड़ दिया क्योंकि उसका मूड ठीक नहीं था। ये सारी बातें, पारुल ने मुझे फोन पर बताईं।

'तुम्हें यह फोन नम्बर कहाँ से मिला, पारुल आपा?'

'नूपुर से लिया-'

'उन लोगों ने क्या यह भी कहा कि उनका मूड ख़राब होने की ख़बर, तुम मुझ तक पहुँचा दो?'

'नहीं, ऐसी बात तो नहीं है! नूपुर तो मुझे फोन नम्बर देना ही नहीं चाहती थी। मैंने ही कई-कई बहाने से, उससे फोन नम्बर ले लिया।'

'क्या कहकर लिया?'

'मैंने कहा, उस बेचारी को कितने दिनों से देखा नहीं। रहने को वह इसी ढाका शहर में ही है, मगर ऐसा लगता है, जैसे वह दिल्ली-मुम्बई जा बसी। उसकी आवाज़ ही किसी दिन सुन लेती, तो मुझे अच्छा लगता।'

'बेचारी क्यों कहती हो मुझे? तुम्हें क्या लगता है, मैं मज़े में नहीं हूँ? सुखी नहीं हूँ?'

'नहीं, नहीं, मुझे यह क्यों लगने लगा! तुम लोगों ने अपनी पसन्द से विवाह किया है, ज़रूर ख़ुश और सुखी ही होगे तुम लोग।

'वह तो खैर मैं हूँ! अपने पति के साथ सुखभरी गृहस्थी चला रही हूँ। हारुन और मैं-दोनों ही अब बच्चा चाहते हैं। इन दिनों, हम दोनों में से कोई भी नहीं चाहता कि हम एक-दूसरे से दूर रहें। यूँ ही ब्याह के बाद इतना पीहर आने-जाने की ज़रूरत भी क्या है, बताओ?'

'एक दिन पीहर आ जातीं तो क्या तुम्हें बच्चा नहीं होगा?' पारुल हँस पड़ी।

'होगा, पारुल आपा, ज़रूर होगा! होगा क्यों नहीं? लेकिन अगर मैं पीहर और माँ का चेहरा देखती, तो ज़रूर मुझे बेटी ही होती। माँ को तो बेटा जन्म देने का अभ्यास नहीं है न! देखो, किसी से कहना नहीं, इन दिनों कोई अशुभ चेहरा देखना ठीक नहीं है। मैं बेटे को ही जन्म दूँगी, पारुल आपा, बेटी को हरगिज़ नहीं!'

'यह तुम कैसी बातें करती हो, झूमुर? मुझे तुमसे ऐसी बातों की उम्मीद नहीं थी।'

'क्यों? मैंने क्या कुछ गलत कहा?'

'तुम अपनी ही माँ को अशुभ कह रही हो? ऐसी माँ तुम्हें कहाँ मिलेगी? पीहर से बढ़कर कोई और घर अपना होता है भला?' पारुल की आवाज़ में विस्मय छलक उठा।

'वाह, पारुल आपा, वाह! अच्छा सुना दिया! वह घर तुम्हारा भी तो पीहर ही है। वे लोग कितने सगे हैं तुम्हारे, वताओ? अपने ही पीहर में हड्डियाँ तोड़ती हो, मेहनत करती हो। अभी भी तुम्हारी समझ में नहीं आया कि कौन-सा घर तुम्हारा अपना है? और चाहे जो कहो, पीहर का गणगान करना, तम्हें शोभा नहीं देता।'

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पाँच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. पन्द्रह
  15. सोलह
  16. सत्रह
  17. अठारह

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