उपन्यास >> शोध शोधतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास
यह फैसला लेने के दो दिनों बाद ही माँ का फोन मिला। उन्होंने मुझसे एक बार वारी आने का आग्रह किया। वहाँ नूपुर की बेटी का जन्मदिन मनाया जाना था। नपर अपनी बेटी समेत वहाँ हफ्ते-भर रहने वाली थी। वे चाहती थीं कि उन दिनों में भी मायके के लोगों के साथ कुछ दिन गुजारूँ।
मैंने बेहद निरुतप्त लहजे में उन्हें साफ़ जवाब दे दिया, 'नहीं, मैं नहीं आऊँगी।'
'क्यों?' माँ ने सवाल किया।
'मेरी मर्जी! मेरा ही जाने का मन नहीं है। बस्स!
क्यों, री, मन क्यों नहीं है?' माँ ने जानना चाहा!
मैंने कोई जवाब नहीं दिया।
माँ को लगा अगर हारुन से आग्रह करें, तो शायद बात बन जाए। उन्होंने अगले दिन पापा को हारुन के दफ्तर में भेजा।
हारुन से पापा की बातचीत के बाद, उस दिन शाम को घर लौटकर हारुन ने कहा, 'अगर जाना चाहो तो हफ्ते-भर के लिए तो नहीं, हाँ, जन्मदिन के दिन चली जाना।
मैंने हारुन को भी मना कर दिया।
"भई, जब, इतनी बार कहा है, तो जन्मदिन मना ही आओ। मैं अकेले जाने को नहीं कह रहा हूँ। मैं भी साथ चलूँगा।'
ना! नूपुर ने पिछली बार तो अपनी बेटी के जन्मदिन पर मुझे बुलाया नहीं था।
अचानक इस बार मुझे क्यों तलब कर बैठी?'
हारुन को विश्वास हो गया कि नूपुर से नाराज़गी की वजह से मैं वारी नहीं जा रही हूँ!
अन्दर-ही-अन्दर हारुन ने एक तरह से चैन की साँस ली, यह मैं समझ गई। मेरे माँ-पापा, बहन के साथ मेरा रिश्ता-नाता फीका पड़ता जाए, वह तो यही चाहता था और यह बात मुझसे बेहतर कौन समझेगा?
अगले दिन सासजी मुझे कुमुद फूफी के घर ले जाना चाहती थीं।
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