उपन्यास >> शोध शोधतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास
चार दिनों तक लगातार अफ़ज़ल के साथ सहवास के बाद. अचानक मेरे मन में आशंका ने सिर उठाया और मुझे दंश देने लगी। मैं बेरंग होने लगी। उसके साथ सहवास कहीं मुझे गर्भवती न बना दे!
इन दिनों मैं सब्जी में नमक डालना भूलने लगी, भात जल जाता। मैं अपने अस्थिर मन को हर रोज़ स्थिर करने की कोशिश करती। अपने को शान्त और शीतल करने का प्रयास करती। इन दिनों अपने ही साथ लम्बे-लम्बे संवाद जारी रहते थे-हारुन को तो तुम प्यार करती हो, झूमुर! क्यों, प्यार करती हो या नहीं? हाँ, करती हूँ। हारुन से तुमने ही तो विवाह करना चाहा था न? हाँ, चाहा था।
इसीलिए न कि तुम उसे प्यार करती थी? हाँ, इसीलिए! अब क्या हारुन को प्यार नहीं करतीं? मुझे ठीक-ठीक समझ में नहीं आता।
या तुम अफ़ज़ल को प्यार करती हो? मुझे समझ में नहीं आता। इसी का नाम प्यार है या नहीं, मुझे ठीक-ठीक समझ में नहीं आता। अफ़ज़ल से गोपन शारीरिक सम्पर्क की वज़ह प्यार है या नहीं, यह तो समझ में नहीं आता, मगर यह अहसास ज़रूर होता है कि अफ़ज़ल के प्रति मेरे मन में मोह ज़रूर है। मैं बार-बार अपने से सवाल करती रही, मैं इन दोनों में से किसे प्यार करती हूँ। मुझे जवाब नहीं मिला। यह ज़वाब न मिलना, मुझे तकलीफ़ दे रहा है! अगर मैं सच ही अफ़ज़ल से प्यार करने लगी हूँ, तो हारुन को त्याग कर, उसके साथ चली क्यों नहीं जाती? असल में, अफ़ज़ल पर मेरा भरोसा नहीं है। उसका मन कहता है कि कोई और नंगी औरत मिलते ही, वह इसी तरह उसमें भी मग़न हो जाएगा। मेरा मन कहता है कि कलाकार-मन कभी पोस नहीं मानता। किसी नाजायज़ सम्बन्ध में जाना क्या मेरे लिए इतना ज़रूरी है? अगर मैं चाहूँ, तो हारुन के साथ, सिर्फ़ उसके साथ क्या सुखी और तृप्त नहीं हो सकती? मेरा मन कहता है, हो सकती हूँ।
दीर्घदिवस, दीर्घरजनी, कोई अनिश्चित अस्थिरता और यन्त्रणा झेलने के बाद, मेरी समझ में आ गया कि मैं अफ़ज़ल को नहीं, हारुन को ही प्यार करती हूँ। यह बात समझ में आ जाने के बाद, एक दोपहरी, ठंडे पानी में, बदन का पसीना और वीर्य धोते-धाते, मैंने फैसला किया कि मैं अफ़ज़ल का वीर्य ही अपनी कोख में धारण करूँगी। हारुन के संगम से मैं माँ नहीं बनूँगी। माहवारी के बाद, दस से सोलहवाँ दिन, गर्भवती होने का दिन होता है, यह बात सेवती मुझे कई बार बता चुकी थी। मैंने फैसला किया, दस से सोहलवाँ दिन-ये सात दिन मैं हारुन से अलग रहूँगी। बाकी दिन वह भले मेरी कोख में सन्तान का बीज-वपन करे। नहीं, हारुन को मैं अपनी उर्वर जमीन नहीं दूंगी। वह रात भर घास के जंगल में अपने मोती बिखेरता रहे, उसके बाद आस लगाए, बैठा रहे। सुभाष या आरजू का नहीं, अपनी सन्तान की उम्मीद में! इस फैसले को लेकर मेरे मन में कोई अपराध-बोध नहीं जागा, बल्कि मुझे तो लगता है, जैसे मैं हारुन को उसका प्राप्य लौटा रही हूँ। इसका नाम धोखेबाज़ी नहीं है, व्याभिचार भी नहीं है! पति प्राप्य का जो मतलब वह समझता है, गृहस्थी में दिन पर दिन आत्मीयहीन, संगीहीन ज़िन्दगी गुजारना, पति और पति के नाते-रिश्तेदारों को तुष्ट रखकर, अपने को अकिंचन, तुच्छ प्राणी में परिणत करना-मैंने वह सबकुछ किया है। चलो, यह मान लेते हैं कि उसके नाम एक और प्राप्ति लिख दी।
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