उपन्यास >> शोध शोधतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास
मैं बार-बार अपने को यकीन दिलाती रही-ना, यह मेरी ससुराल की निचली मन्ज़िल पर रहने वाला , कोई अधूरी जान-पहचान वाला मर्द नहीं है। यह मेरे सपनों का पुरुष है। मर्द के इसी स्पर्श के लिए मैंने ज़िन्दगी-भर इन्तज़ार किया है। घने-गहन अरण्य की आड़ में एक स्वच्छ-विमल नदी बह रही थी, नदी के उस जल में हम दोनों गुपचुप रीझ-रीझकर नहाते रहे। जैसे हम ही इस सृष्टि की पहली संतान हों। हमारे अलावा कहीं, कोई नहीं है। इस वक़्त कोई भी हमारी मगन स्थिति को तोड़ने नहीं आएगा; कोई हमारी इस अतल निस्तब्धता में जल-पतन की बूंद-भर आहट नहीं जगाएगा।
एकः अदद कुशल-माहिर चित्रकार मुझे आँक रहा था; मन के समूची रंग उड़ेलकर, वह मुझे आँकता रहा; देह भी अनगिनत तूलिका से मुझमें रंग भरता रहा। उसकी देह की रोशनी, भोर की सूर्य-किरण की तरह मेरे तन-बदन पर पड़ रही थी। वह इस रोशनी का खेल, मेरे जिस्म पर आँकता रहा। चित्रकार के हाथों रची-गढ़ी अपनी तस्वीर को देखते हुए, मैं गुग्ध हो गई। वाकई, ख़ुद अपने को, इतनी खूबसूरत, मैं कभी नहीं लगी थी।
फोन की घंटी सुनकर, मुझे होश आ गया। अपनी अस्त-व्यस्त साड़ी, ढलके हुए जूड़े समेत अपने को बेसुध की तरह सम्हालती हुई, मैं सेवती के फ्लैट से निकलकर दौड़ती हुई सीढ़ियाँ चढ़कर, दूसरी मन्ज़िल में आ पहुँची। रसूनी ने दरवाज़ा खोला। ना, अभी तक कोई घर नहीं लौटा था।
बिना कुछ कहे-सुने, मैं बाथरूम में जा घुसी। मैंने शावर खोल दिया और उसी साड़ी-कपड़ों में मैं ठंडे-ठंडे पानी तले आ खड़ी हुई। फव्वारे के पानी ने मेरी आँखों के आँसू धो डाले। चित्रकार ने जितने सारे रंगों में मुझे रँगा था, वे सारे रंग धुल गए। स्निग्ध-पवित्र होकर मैं बाथरूम से बाहर निकल आई. लेकिन मझे अहसास हुआ कि पानी से सारे रंग नहीं धुलते, थोड़े-बहुत बच रहते हैं, लगे ही रहते हैं। मेरी ज़िन्दगी को यह क्या हो गया? दोषी कौन है? मैं या अफ़ज़ल? या इसमें किसी का भी दोष नहीं है। यह महज दुर्घटना है? या यह प्रतिरोधहीन आवेग़ है? महज मोह! या प्यार? मेरी समझ में कुछ नहीं आया।
मेरी आँखों की आँसुओं से तकिया भींगता रहा।
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