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शोध

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3010
आईएसबीएन :9788181431332

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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास


मुझे ऐसा क़तई नहीं लगा कि यह दृश्य, मेरी ज़िन्दगी से जुड़ा कोई दृश्य है। दीपू, शिप्रा को ज़रूर इसी तरह छूता होगा। झूमुर धीरे-धीरे शिप्रा में विलीन होती गई। मैं आँखें मूंदे, वे तमाम स्पर्श महसूस करती रही। मुझे लगा, जैसे मैं कोई सितार हूँ, स्पर्शमात्र से अनगिनत सुरों में बज उठी हूँ। मैं यह सोच-सोचकर विस्मित हूँ, मैं एक रक्षणशील यानी रूढ़िवादी परिवार की बेटी हूँ, रूढ़िवादी परिवार की बहू हूँ यह भला कैसे सम्भव है कि घर में सक्षम और तन्दुरुस्त पति के होते हुए, मैं पराए मर्द के स्पर्श से पुलक उठती हूँ। कहाँ गए इतने वर्षों के मेरे संस्कार? संगी-साथियों के साथ गपशप और हो-हुल्लड़ मचाते हुए, विश्वविद्यालय में एक तरह से बन्धनहीन, उन्मक्त जीवन ज़रूर गज़ारा था, लेकिन संस्कार तो मौजद थे। चूँकि वे संस्कार मेरे खून के बूंद-बूंद में घुले-मिले थे, इसलिए चौबीस साल तक मैंने अपने को पुरुष-सम्भोगहीन रखकर, अपने को सुयोग्य बनाया है, ताकि कोई अपना मर्द, सुहाग़-सेज पर मेरी यह अछूती-कुँवारी देह पाकर, वह तन-मन से तृप्त हो सके। यह संस्कार तो मुझमें मौजूद था कि पति के अलावा और किसी भी मर्द की तरफ प्यासी आँखों से देखना गुनाह है। ना, मैं कोई गुनाह नहीं कर रही हूँ ना, ना, यह मेरे मन का सिर्फ भ्रम है या फिर सपना या मैं कोई परीकथा पढ़ रही हूँ-घने जंगल में किसी राजकुमार की, किसी रजकुमारी से भेंट हुई है। दोनों एक-दूसरे के हाथ में हाथ डाले, रीझ-रीझकर प्यार में डूबे हैं। यह सब सचमुच नहीं घट रहा है, मैं ज़रूर नींद में बेख़बर हूँ, ससुराल वालों की पुकार पर जाग उठूँगी।

'उठो, बहू, काफ़ी देर हो गई! अब खाना-वाना पकाने की तैयारी करो! जल्दी!'-और मैं जाग उठूगी।

'आप यहाँ क्यों आई हैं, झूमुर?'

'झूमुर नाम सुनकर मैं अचकचा गई। मैं तो झूमुर हूँ। शिप्रा नहीं! मैं ऊपर वाली मन्ज़िल की बहू हूँ।

'मुझे नहीं मालूम...' मेरी आवाज़ काँप उठी।

'सच ही नहीं मालूम ?'

बिस्तर से झटपट उठते हुए, मैंने टूटी-फूटी आवाज़ में कहा, 'असल में...मेरी तस्वीर बनाएँगे, इसीलिए...'

मैं तो नंगी औरतों की तस्वीरें आँकता हूँ। अफ़ज़ल की आँखों में बूंद-बूंद नशा! आवाज़ में भी मादकता!

मैं यह नहीं समझ पाई कि मेरे मौन ने ही अफ़ज़ल को साहसी बना दिया या वह जन्मजात साहसी था। ना, अब कुछ समझने को मेरा मन भी नहीं करता। अफ़ज़ल मुझे ताबड़तोड़ चूमते हुए, मेरे होंठों, ठुड्डी, गर्दन, उभारों पर प्यार आँकते हुए, साड़ी की गाँठ खोलकर, मुझे उन्मुक्त करता रहा! वह मेरे संस्कारों से भी मुझे आज़ाद करता रहा। उसली उँगलियाँ बेदह तेज़ी से हरकत कर रही थीं। मेरी बेजान बाँहें धीरे-धीरे उठीं और अफ़ज़ल की पीठ, खुली पीठ से लिपट गईं। मेरी उँगलियाँ पीठ से बालों तक, बालों से पोर-पोर में घूमती रहीं! बालों से माथे, नाक और बिना हज़ामत बनाए गालों, होंठों, ठुड्डी को सहलाती हुई, छाती के घने जंगल में गुम हो गईं। इस प्रश्रय में कहीं, कोई भूल नहीं थी। अफ़ज़ल अगर चाहे, तो सुन सकता था-तुम जो कर रहे हो, मुझे उस सुख में नहीं डूबना चाहिए, मगर मुझे यह सब अच्छा लग रहा है। इससे भी ज़्यादा यह भला लगा था कि अफ़ज़ल ने एक बार तस्वीर की उस नंगी औरत की तरफ़ नहीं देखा। उस औरत को देखकर मुझे कितनी तो ईर्ष्या हुई थी! इस वक़्त वह और व्यर्थ, अक्रिन्चन बनी पड़ी हुई थी। अफ़ज़ल मेरे तन-बदन पर बूंद-बूंद अमृत टपकाता रहा, मैं गुपचुप भीगती रही।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पाँच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. पन्द्रह
  15. सोलह
  16. सत्रह
  17. अठारह

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