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शोध

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3010
आईएसबीएन :9788181431332

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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास


सेवती के घर का दरवाज़ा अन्दर से बन्द नहीं था! दरवाजे पर हाथ रखते ही, कुछ मेरे हाथ की छुअन से, कुछ हवा के झोंके से, दरवाज़ा धीरे-से खुल गया। मैं दबे पाँव अन्दर चली आई। अफ़ज़ल खाली बदन, सिर्फ़ सफ़ेद पायजामे में, बरामदे की कुर्सी पर बैठा-बैठा रेलिंग पर पाँव फैलाए, कोई किताब पढ़ रहा था। मैं बेआवाज़ उसके पीछे जा खड़ी हुई। अफ़ज़ल की निगाह उस वक़्त भी, हिचहाइकट्स गाइड टु द गैलेक्सी' पर गड़ी हुई थी। उसका ध्यान तोड़ने का मेरा कोई इरादा नहीं था। मैं ख़ामोश, उसके पीछे खड़ी रही। लेकिन हवा के झोंके से मेरी साड़ी का आँचल, उसकी किताब पर लहरा उठा। उसने चौंककर पीछे देखा।

'वाह! ऊपर मुहाल की बहुरिया! कब आईं?' हाथ में किताब लिए-लिए, अफ़ज़ल उठ खड़ा हुआ।

'सेवती नहीं है? उससे कोई ज़रूरी बात करनी थी।'

'अरे, छोड़ें! सेवती के साथ आपको कोई ज़रूरी बात नहीं करनी थी।'

'तो फिर मैं क्यों आई?'

'इसलिए आईं, क्योंकि सेवती इस वक़्त घर पर नहीं है।' मारे शर्म के मैं नाखून चबाने लगी। अचानक मैंने वापस जाने को पैर बढ़ाया।

पीछे से अफ़ज़ल ने मेरा हाथ पकड़कर अपनी तरफ खींच लिया। अफ़ज़ल के खुले सीने की रोमावली में मोहक-सी ख़ुशबू! हैरत है! अपने को वहाँ से हटाने का मेरा मन नहीं हुआ। मेरी हथेलियाँ, अफ़ज़ल ने अपने हाथों में कस लिया।

'इतने-इतने गहने क्यों पहनती हैं?'

'इसलिए कि ऊपर मुहाल के लोगों को यही पसन्द है।'

'जो-जो उन लोगों को पसन्द है, आप शायद वही-वही करती हैं?'

'करना पड़ता है!'

'देखिए तो, वे लोग यह पसन्द करते हैं या नहीं ?' -इतना कहकर अफ़ज़ल ने मुझे अपनी बाँहों में कसकर, मेरे होंठों पर गहरा चुम्बन आँक दिया।

मेरे दोनों हाथ अफ़ज़ल को हटाने में व्यस्त हो गए। मैंने अपने पैरों तले जमीन महसूस करने की कोशिश की। अफ़ज़ल के आलिंगन में मैंने जबरन अपने को मुक्त कराने के लिए हाथ-पैर फेंके। उसके चुम्बन पर, मेरी लचाई-शर्माई मुद्रा देखकर, अफ़ज़ल ने मुझे गोद में उठा लिया और अपने कमरे में चला आया। ठीक इसी तरह शिप्रा को अपनी बाँहों में उठाए, पिछले दिनों, दीपू खुश हो रहा था, जब उसने पहली बार बच्चा होने की ख़ुशख़बरी सुनी। अफ़ज़ल की बाँहों में मेरा तन-बदन शिथिल पड़ता गया। मेरे न चाहने के बावजूद मेरी बाँहों ने अफ़ज़ल को घेर लिया। उसे परे धकेल देने या अपने से दूर हटाने की कोई ताकत मुझमें नहीं थी। उस वक़्त मुझे ऐसा लग रहा था, मानो मैं, मैं नहीं हूँ। मैं हारुन की बीवी नहीं हूँ, मैं झूमुर भी नहीं हूँ। मैं शिप्रा हूँ और अफ़ज़ल भी निचली मन्ज़िल का किराएदार या सेवती का देवर नहीं है। वह दीपू है। अफ़ज़ल ने मुझे बिस्तर पर लिटा दिया, मेरा आँचल खिसक गया, बाल खुलकर बिखर गए! मैंने शर्म के मारे, अपनी आँखें मूंद लीं। सुहाग-सेज पर बैठी शिप्रा, मारे लाज़ के दोहरी हो आई थी। वह आंखें तक नहीं खोल पाती। उसकी सारी शर्म दीपू से जुड़ गई थी। अफ़ज़ल ने मेरी मुँदी हुई पलकों को चूम लिया। जैसे गुलाब की कलियाँ चिटखकर खिल उठती हैं, मेरी मुँदी हुई पलकें भी धीरे-धीरे खिल उठीं। मेरी खुली हुई आँखों के सामने वही नंगी औरत झूल आई! वही, वक्ष की बुंदकियों में पानी की बूंदें चकमती हुई! अफ़ज़ल को चेहरा, मेरे चेहरे पर झुक आया। मानो वह मुझे पहली बार देख रहा हो! उसकी उँगलियाँ हौले-हौले मेरे बाल, माथा, नाक, हाथों में कसी उँगलियों की पोरों को हल्के-नाजुक पंखों की तरह छू-छूकर महसूस करने लगीं। हारुन तो मुझे कभी इस तरह नहीं छूता।

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पाँच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. बारह
  13. तेरह
  14. पन्द्रह
  15. सोलह
  16. सत्रह
  17. अठारह

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