उपन्यास >> शोध शोधतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास
एक दिन मैं भी सासजी के साथ अस्पताल जाकर उसे देख आई। रानू उसके सिरहाने बैठी-बैठी, फफक-फफककर रो रही थी। ज़्यादातर वक़्त वही हसन के पास रहती थी।
एक बार अस्पताल हो आने के बाद, सासजी ने कहा, 'देखो, तुम घर की बहू हो। तुम्हें अस्तपाल दौड़ने की ज़रूरत नहीं है। तुम तो ऐसा करो, घर में बैठी-बैठी नमाज, कुरान पढ़ो और हसन के लिए दुआ करो। हसन स्वस्थ हो उठे, घर के सभी लोगों की तरह, मैं भी यही दुआ करती रही। उसके लिए दुआ, मैं कुरान पढ़कर भी करती, बिना पढ़े भी करती।
प्रायः हर रोज़ शाम को सासजी दोलन के साथ, टिफ़िन में खाना और फ्लास्क में गर्मागर्म सूप लेकर अस्पताल चली जाती थीं। रानू तो खैर, रात-दिन अस्पताल में ही गुज़ारती थी। शाम को समूचा खाली घर भाँय-भाँय करता था। इस दौरान धड़धड़ाते हुए सीढ़ियों से पाताल तक उतर आने का अभ्यास भी मैंने पक्का कर डाला। पाताल में, सोने की डिबिया में भँवरा छिपा हुआ था। डिबिया खोलकर मैं उस प्राण-भँवरे को निहारती रहती थी। इस बात की ख़बर किसी को भी नहीं थी। सेवती को भी नहीं। सेवती के साथ गपशप करते हुए, मैं चोर-निगाहों से कभी-कभी अफ़ज़ल को भी देख लेती। आँखों-आँखों में हमारी बातें भी हो जातीं। मेरी आँखों में यह बात भी छिपी होती कि किसी दिन वह अलग-अलग रोशनी में मेरी भी तस्वीरें आँकेगा। कभी, किसी दिन! वह दिन कब आएगा। यह बात मैं या अफ़ज़ल, कोई नहीं जानता था। लेकिन वह दिन आएगा ज़रूर, इस उम्मीद में मेरी आँखों की पुतलियाँ झूमती-लहराती रहती हैं।
वह सुनसान दोपहरी थी! ससुर जी नोवाखाली गए हुए थे। सासजी, दोलन, दोलन की बेटी सुमइया, रानू वगैरह सभी लोग, हसन के पास अस्पताल में थे। दोलन का पति, अनीस, चटगाँव में! हबीब न घर में था, न अस्पताल में। वह डाँव-डाँव कहीं भटक रहा होगा। हारुन दफ्तर में! घर में अकेली मैं और रसूनी। कामकाज़ खत्म करने के बाद, रसूनी ने खाना-पीना भी निपटाया और अब फ़र्श पर लेटी-लेटी टेलीविजन देख रही थी। रसूनी को बताकर, मैं नीचे चल दी। मुझे मालूम था कि सेवती घर पर नहीं होगी, इसके बावजूद मैं नीचे चली आई। मेरे जाते ही, समूचे घर में अकेली रसूनी का राज हो जाएगा, इस ख्याल से रसूनी ने राहत की साँस ली! रसूनी अन्दर-ही-अन्दर कहीं अस्थिर हो उठी। अब अगर वह चाहे तो कुछेक निषिद्ध काम, वह अनायास ही कर सकती है। मसलन लेटे-लेटे टेलीविजन देखने के बजाए, वह आराम से सोफे पर पैर फैलाए, लेटे-लेटे टेलीविजन का मज़ा ले सकती है। जब तक दरवाज़े पर किसी के आने की आहट नहीं मिलती, वह घर के सबसे ज़्यादा नरम बिस्तर पर लोट-पोट लगा सकती है। रसूनी इसी में ख़ुश! चोरी-छिपे नरम-मुलायम गद्दे का मज़ा लेना, थोड़ी देर के लिए ही सही, खाली घर में अपने को बीवी साहिबा सोचने का सुख!
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