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अंधकार

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16148
आईएसबीएन :000000000

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गुरुदत्त का सामाजिक उपन्यास

''बाबा! पहचान लिया है।'' सूरदास ने घुटने को छूकर कह दिया।

सन्तजी हंस पड़े। हंसकर उन्होंने सूरदास से पूछा, ''क्या पहचान लिया है?''

''महाराज के चरण। इन्हीं में मुझे रहना होगा।''

''ठीक है।'' सन्तजी ने आवाज दी, ''ओ कृष्णदास।''

दूर एक कोठरी में से एक ब्रह्मचारी निकल संतजी के समीप आ खड़ा हुआ संतजी ने कह दिया, ''कृष्ण! इसे हमारे कमरे में ले जाकर बैठा दो। साथ ही वहां का द्वार और शौचालय इत्यादि का मार्ग समझा दो। जब तक यह सज्ञान हो अपना मार्ग स्वयं पाने की सामर्थ्य नहीं पा जाता इसकी रक्षा तुम करना।''

बालक के सौन्दर्य और बड़ी बड़ी, परन्तु ज्योतिविहीन आंखें देख सब चकित थे। कृष्णदास इस अन्धे बालक का हाथ पकड़ कर इसे एक कोठरी में ले गया तो सतजी से एक सेवक ने पूछ लिया,  ''महाराज! यह बालक कौन है?''

''यह हम नहीं जानते। हमारा एक सेवक है। नाम बताने की आवश्यकता नहीं और न ही बताने में लाभ है। वह हमको कह गया था कि एक विधवा की अवैध सन्तान पालन-पोषण के लिये यहां एक साधारण, परन्तु श्रेष्ठ व्यक्ति के पास छोड़ चला हैँ। वह व्यक्ति उस बालक का पालन-पोषण करेगा और पांच वर्ष के उपरान्त वह बालक आपकी सेवा मे आ जायेगा।

''आप उसे पांच वर्ष व्यतीत हो गये हैं और यह बालक अब यहां रहने के लिये आ गया है। यह जन्म से अन्धा है और चक्षुओं के अतिरिक्त इन्द्रियों से ही अपना जीवन चलाने का यत्न कर रहा है। बस, हम इसके विषय में इतना ही जानते हैं।''

एक सेवक ने कुछ सशित मन से कहा, ''लोग इसके आपके पास रहने से आपको इसका पिता मानने लगेंगे।''

''यह तो स्वाभाविक है। मैं अपने को आप सबका पिता मानता हूं। यह बालक भी अब आपमें सम्मिलित हो गया है।''

यह सन् 1940 की बात थी। सन् 1950 में संतजी का देहान्त हो गया। देहान्त के उपरान्त संतजी के सेवक एकत्रित हुए तो सेठ कौड़ियामल्ल भी आये और सूरदास को अपने साथ ले जाने का विचार बना बैठे। सेठजी जानते थे कि कृष्णदास नयनाभिराम से ईर्ष्या करता है। नयनाभिराम अब कीर्तन और धर्मोपदेश करने लगा था।

कृष्णदास सूरदास से बड़ा होने पर भी जड़ बुद्धि था।

सेठजी ने अवसर पाकर कह दिया"सतही! सूरदास यहाँ कष्ट रहेगा। इसे मेरे साथ भेज दीजिये।""

"क्यों आप इसका क्या करेंगे?"

"इसको संगीत सीखने और शास्त्र पढ़ने का प्रबन्ध कर दूंगा।" 

"इसकी इच्छा पर है।"

"क्यों राम। चलोगे मेरे साथ?"

सूरदास दोनों की बातचीत सुन रहा था। उसने सम्बोधन किए जाने पर पूछ लिया, "आप कहां रहते हैं?"

"बदायूं में।''

"वह क्या है?"

"एक नगर है।"

"वहां मेरी देख-रेख हो सकेगी क्या? मैं तो बिना किसी के आश्रय रह नहीं सकता।"

"हो जायेगी। एक व्यक्ति सदा तुम्हारे साथ रहनेवाला मिल जायेगा।"

"तो चलूंगा।"

"और यहां क्यों नहीं रहते?" कृष्णदास ने माथे पर त्यौरी चढ़ाकर पूछ लिया।

"संतजी! मुझे यहां कुछ भी तो दिखायी देता नहीं।"

"और वहां दिखायी देने लगेगा?" कृष्णदास ने क्रोध में पूछ लिया।

""क्या जाने, वहां क्या होगा! यहां तो भास्कर अस्त हो चुका है।"

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    अनुक्रम

  1. प्रथम परिच्छेद
  2. : 2 :
  3. : 3 :
  4. : 4 :
  5. : 5 :
  6. : 6 :
  7. : 7 :
  8. : 8 :
  9. : 9 :
  10. : 10 :
  11. : 11 :
  12. द्वितीय परिच्छेद
  13. : 2 :
  14. : 3 :
  15. : 4 :
  16. : 5 :
  17. : 6 :
  18. : 7 :
  19. : 8 :
  20. : 9 :
  21. : 10 :
  22. तृतीय परिच्छेद
  23. : 2 :
  24. : 3 :
  25. : 4 :
  26. : 5 :
  27. : 6 :
  28. : 7 :
  29. : 8 :
  30. : 9 :
  31. : 10 :
  32. चतुर्थ परिच्छेद
  33. : 2 :
  34. : 3 :
  35. : 4 :
  36. : 5 :
  37. : 6 :
  38. : 7 :
  39. : 8 :
  40. : 9 :
  41. : 10 :

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