उपन्यास >> अंधकार अंधकारगुरुदत्त
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गुरुदत्त का सामाजिक उपन्यास
“राम!” सूरदास को दरी पर बिछी श्वेत चादर पर बैठाते हुए सेठजी ने पूछ लिया।, "प्रकाश में कुछ खराबी देखी है।"
"नहीं, पिताजी। वहां के लोगों में खुराबी देखी है ! भैया बता रहे थे कि टिकट देने बालों ने शराब पीने के लिये दो लाख रुपया मांगा है।"
"तब तो ठीक है। मुझे प्रकाश के विषय में सन्देह हो गया था। राजनीति में संलग्न व्यक्तियों के लिये दूसरा धर्म है और हम वैश्या-समाज वालों के लिये धर्म दूसरा है।”
"पर पिताजी, उसी अन्धकार में तो भैया कूद रहे हैं।
"इसीलिये तो तुमको साथ भेजा था कि भुवन भास्कर का प्रकाश करते रहो और प्रकाश का मार्ग प्रकाशित करते रहो।”
सूरदास एक सुन्दर ओजस्वी युवक था। इस समय उसकी आयु बाईस वर्ष की थी। इसके मुख पर ओज और रूप-रेखा में सुन्दरता देख ही सेठजी उसे अपनी हवेली में ले आये थे। यह सात वर्ष पूर्वं की बात थी। तब वह पन्द्रह वर्ष की आयु का कुमार था।
सूरदास एक विधवा का किसी अज्ञात् पुरुष से पुत्र था। पैदा होते ही उसे संत माधवदास को सौंप दिया गया था और पन्द्रह वर्ष की आयु तक वह संतजी के संरक्षण में रहा। संतजी का आश्रम हरिद्वार कनखल की सड़क पर था। वहीं पर रहता हुआ, सन्त वाणी सुनता हुआ वह बड़ा हुआ था।
सन्त माधवदास गरीब दासी मत के मानने वाले थे और उनके सेवक धनी-निर्धन सब प्रकार के लोग थे। सेठ कौड़ियामल्ल भी सन्त जी का एक सेवक था। सेठजी सन्तजी के सम्पर्क में सन् 1942 में आये थे। तब नयनाभिराम सात वर्ष का बालक मात्र था। और संत जी की परछायी की भान्ति उनके साथ साथ लगा रहता था।
लोग सूरदास और सन्तजी में किसी घनिष्ठ सम्बन्ध की आशंका करते थे, परन्तु लड़का अति सुन्दर रूप-राशि वाला और गौरवर्णीय था। माधवदास काला रंग और बहुत ही भद्दी रूप रेखा के प्राणी थे। सूरदास की मां को किसी ने देंखा नहीं था और माधवदास के आश्रम में किसी स्त्री का वास नहीं था।
सूरदास पांच वर्ष की वयस का था जब सन्तजी के आश्रम में लगया गया था।
उसको आश्रम में बहुत एहीक साधारण वृत्ति का व्यक्ति लाया था। उस समय सन्तजी के बहुत से सेवक उनके पास बैठे थे। सबने उसे देखा और विस्मय मैं लड़के और उसने अभिभावक को देखते रह गये। जब उसने लड़के को संतजी की गद्दी के समीप लाकर कहा, ''महाराज! यह आ गया है।''
संतजी ने मुस्कराते हुए पूछ लिये।, ''तो यह पाँच वर्ष का हो गया है?''
''हां, महाराज। आज आश्विन की पूर्णिमा है। आज यह ठीक पांच वर्ष का हो गया है और आपकी आज्ञानुसार इसे ले आया हूँ।''
''क्या नाम रखा है उसका?''
''नयनाभिराम।'' लड़के की आँखें बड़ी बड़ी और अति सुन्दर थीं। वे खुली थीं, परन्तु प्रकाश भीतर नहीं जाता था।
सन्तजी ने कहा, ''नयनाभिराम। इधर आ जाओ।''
सरदास को हाथ पकड़कर लाने वाला व्यक्ति उसे सन्तजी के घुटने के पास ले गया। उसे बैठाते हुए उसने कहा, ''राम। इस घुटने को पहचान लो। अब तुम यही रहोगे। इसी घुटने के आश्रय इस दुस्तर भवसागर को पार कर सकोगे।''
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- प्रथम परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- : 11 :
- द्वितीय परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- तृतीय परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- चतुर्थ परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :