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अंधकार

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16148
आईएसबीएन :000000000

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गुरुदत्त का सामाजिक उपन्यास

: 11 :

 

उसी सायंकाल प्रकाशचन्द्र एक रात भर आराम करने तथा अपने नगर में निर्वाचन का कार्य देखने के लिये आया था। सूरदास भी साथ था।

घर पहुंच उसे पता चला कि भागीरथ आया हुआ है और वह माता जो को कमला से विवाह करने के लिये शर्ते बता चुका है। प्रकाशचन्द्र अपनी मां तथा अपनी पत्नी श्रीमती से बात कर रहा था।

श्रीमती प्राय: रुग्ण रहती थी और घर के काम-काज से पृथक रहती थी। न तो वह अपनी सास तथा ननद के साथ बैठकर भोजन करती थी और न ही वह घर के प्रबन्ध में किसी प्रकार का भाग लेती थी। वेसे उसे फेफड़ों का यक्ष्मा रोग हो चुका था और वह अति दुर्बल हो चुकी थी। इस कारण वह किसी न किसी कष्ट से सदा पीड़ित रहती थी। चन्द्रावती श्रीमती के कमरे में आयी हुई थी। कमला अभी कार्यालय से लौटी नहीं थी।

चन्द्रावती ने व्याख्या सहित भागीरथ की पूर्ण बात बतायी तो प्रकाशचन्द्र ने पूछ लिया, "मां। अब बताओ, क्या कहती हो?"

''भागीरथ इस घर में दामाद नहीं हो सकता। देखो प्रकाश, जब से तुम राजनीति में रुचि लेने लगे हो, तुम्हारे पिता व्यवसाय में तुम्हारा स्थानापन्न ढूँढ़ रहे थे। उनका विचार था कि भागीरथ पढ़ा-लिखा, परन्तु एक निर्धन परिवार का लड़का होने से मेहनती और समझदार होगा और वह उसे व्यापार में लेकर आधे व्यापार का तुमको मालिक बनाना चाहते थे और आधे का कमला तथा उसको। परंतु वह मूर्ख सरकारी नौकरी को मूल्यवान् वस्तु मान उससे चिपटा रहना चाहता है।"

''देखो मां। दहेज तो कुछ अधिक नहीं मांगता। इतना कुछ तो हम देने ही वाले है, परन्तु यह मूर्ख है और निश्चय जानो कि कमला उससे लड़ पड़ेगी। साथ ही यदि उसे पता चला कि उसके मटियाले रंग को उज्जवल करने के लिये उस पर चाँदी का आवरण पहनाया गया है तो वह इसके घर से भाग आयेगी।

"मां यह सब सूरदास की शिक्षा का फल है। वह नित्य कथा में और मेरे निर्वाचन सभाओं में भी कहता रहता है कि मन, वचन और कर्म में समानता ही महानता के लक्षण हैं। मैं तो स्वयं अपने पिछले व्यवहार को इस उपदेश की दृष्टि मैं देखता हूं तो अपने को बहुत छोटा पाता हूं। मेरे मन में अब बलबले उन्पन्न होन लगे हैं और मन, वचन, कर्म को एक सीधी रेखा में बोधने लगा हूं।"

"तो तुम उसका विवाह सूरदास से पसन्द करोगे?"

''मैंने यह बात नहीं कही मां। इस पर भी मैं देखता हूं कि कमला का विवाह हो जाना चाहिये।"

श्रीमती ने आराम कुर्सी पर ढासना लगा बैठे हुए कह दिया, ''माताजी। इन्हें कहिये कि दूसरा विवाह कर ले।"

"यह तुम दोनों के विचार करने की बात है। हम इसमें कभी भी सम्मति नहीं देंगे। एक बार इनके पिता से बात हुई थी। वह कहते थे कि सन्तान नहीं होगी तो सब दान कर देंगे। वंश नहीं चलेगा तो न सही, मैं सब कुछ दान कर दूंगा। जब तक दान से काम चलेगा नाम भी चलता रहेगा। इसीलिये तो सन्तान की आवश्यकता होती है।

प्रकाश ने कह दिया, "मां। उसके लिये अभी बहुत समय है। मैं एक कार्य में लगा हूँ। उसमें सफल हो लूं तो फिर विचार कर लूगा मैं किसी को गोद भी तो ले सकता हूँ।"

श्रीमती ने बात बदल दी। उसने पूछा, "मांजी। कमला की बात बताइये?''

इस समय कमला आ गयी जौर आते ही पूछने लगी, "भैया। प्रचार कार्य कैसा चल रहा हैं?''

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    अनुक्रम

  1. प्रथम परिच्छेद
  2. : 2 :
  3. : 3 :
  4. : 4 :
  5. : 5 :
  6. : 6 :
  7. : 7 :
  8. : 8 :
  9. : 9 :
  10. : 10 :
  11. : 11 :
  12. द्वितीय परिच्छेद
  13. : 2 :
  14. : 3 :
  15. : 4 :
  16. : 5 :
  17. : 6 :
  18. : 7 :
  19. : 8 :
  20. : 9 :
  21. : 10 :
  22. तृतीय परिच्छेद
  23. : 2 :
  24. : 3 :
  25. : 4 :
  26. : 5 :
  27. : 6 :
  28. : 7 :
  29. : 8 :
  30. : 9 :
  31. : 10 :
  32. चतुर्थ परिच्छेद
  33. : 2 :
  34. : 3 :
  35. : 4 :
  36. : 5 :
  37. : 6 :
  38. : 7 :
  39. : 8 :
  40. : 9 :
  41. : 10 :

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