उपन्यास >> अंधकार अंधकारगुरुदत्त
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गुरुदत्त का सामाजिक उपन्यास
: 4 :
"राम।" तारकेश्वरी ने खाने की मेज पर बैठते ही परिचय कराते हुए कहा, "यह तुम्हारी बहन प्रियवदना है। मेरे छोटे भाई कृष्णजी भाई सेठ की लड़की है। आजकल यह मेरे व्यवसाय में भागीदार है।"
सूरदास ने हाथ जोड़ नमस्कार किया। खाना खिलाने वाली सेविका मृदुला अभी प्लेटें ही लगा रही थी। प्रियवदना ने पूछ लिया, "भैया! इतने दिन कहां रहे हो?" उसका आशय था कि वह अपने पूर्व इतिहास से अवगत कर दे।
''बहन! भगवान ने मुझे आखों के देने में कंजूसी कर दी है। इस कारण यह अधिकार मुझसे छीन लिया है कि मैं स्वेच्छा से कहीं जाऊं अथवा रहूँ। जहां उसने इतनी देर रखा, वहां रहा और जैसे उसने रखा वैसे रहा।"
''किसने रखा? जब हम दुकान से ऊपर आये थे तो तुम किसा का धन्यवाद गुनगुना रहे थे। उसी के विषय में कह रहे हो क्या? कौन है वह और कहां है वह?"
सूरदास मुस्कराया और बोला, "हाँ, मैं गा रहा था कि प्रभु, तुम अति अनुग्रह कीनो। उसी की बात कह रहा हूं कि उसने जहां रखा वहीं रहा हूँ।"
''और उसी के अनुग्रह से आंखों से वंचित हुए हो?''
"आंखों से वंचित तो अपने कर्म-फल से हुआ हूँ। उसकी अनुग्रह तो यह मानता हूं कि प्रियवदना जैसी बहन और बहन की बूआ जैसी देवी माता मिली है। उसी की अनुग्रह से ही पहले एक मां धनवती मिल गयीं थी। वह बाल्यकाल में हाथ पकड़ कर अनेकानेक बातें और करने योग्य काम बताती रही थी। तदनन्तर एक संत माधवदास के गुरु पद कमल आंखों को लगाने को मिल गये। यह दृष्टि-विहीन बालक उनकी ही कृपा से भीतर के चक्षु पा गया और कुछ कुछ ज्ञानवान बन गया। तदनन्तर प्रभु की अनुग्रह से एक सेठ मिल गये। उन्होंने भगवत् भजन करने और कराने का अवसर प्रदान कर दिया। एक समय तो सौ सौ कोस के लोग कथा-कीर्तन मुनने केलिये आने लगे थे। अब मां मिल गयी है। यह सब: भगवान् की कृपा का ही फल है।"
''तो भैया राम कथा वाचक भी रहे हैं?"
''हां बहन! वह तो अब भी हूं। इस समय मी तो कथा-वर्णन कर रहा हूं। अपनी भगवान् के भक्त की कथा बहन प्रियवदना को बता रहा हूं।"
''पर उसकी भक्ति क्यों करते हो जिसने तुमसे अपने ही निर्मित पदार्थों का आधे से अधिक सौन्दर्य तुमसे छीन रखा है?"
''बताया तो है बहन। जो छिना है वह अपने किसी बुरे कर्म के फल से है और जो मिला है वह उसकी कृपा से है। देखो, उसी गीत का अगला पद हैं, जो अभी गुन गुना रहा था।
साधन धाम विविध दुर्लभतिनु, महती कृपा कर दीनो।
प्रभु तुम अति अनुग्रह कीनो।।
''सन्दर, नहीं नहीं, मधुर है।
"समझ रहा हूं बहन प्रियवदना। परंतु तुम समझ नहीं रही। सबको यह विविध साधन धाम इत्यादि नहीं मिलते। यह दुर्लभ तनु भी तो है। ये सब उसकी कृपा का फल ही मानता हूं। जो कुछ नहीं मिला वह अन्य अनेकों को अन्य कई एक वस्तुयें न मिलने की भांति कर्म फल के कारण मैं मानता हूं।"
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- प्रथम परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- : 11 :
- द्वितीय परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- तृतीय परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- चतुर्थ परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :