उपन्यास >> अंधकार अंधकारगुरुदत्त
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गुरुदत्त का सामाजिक उपन्यास
विमला उस समय की बात स्मरण करने लगी, जब उसका प्रथम सम्पर्क प्रकाशचंद्र से बना था। उसने उस समय की घटना पर बहुत विचार किया और उसे कुछ ऐसा समझ आया. था कि जैसे वाजार में चलते-चलते किसी गाय को साँड ने दबोच लिया हो। बहुत विश्लेषण करने पर वह यही समझ सकी धी कि यदि उस रात वह अपनी एक सहेली के घर से लौटते समय शीघ्र घर पहुँचने के लोभ में अंधेरी गली की ओर से न जा रही होती और बड़े बाजार में से ही जाती तो प्रकाशचंद्र से भेंट न होती और वढ उसका कुनाखेट न बन जाती। पीछे तो जो कुछ हुआ वह एक फुलझड़ी के एक छोर पर आग लग जाने से पूर्ण फुलझड़ी के जलने तक जलती जाती अनुभव करती थी।
अब शीलवती के सामने बैठी वह यही विचार कर रही थी कि जो आग एक बार लग चुकी है, क्या वह अब जीवन समाप्त होने से पहले बुझ सकेगी? उसका मन कहता था कि वह बुझ गयी है, परंतु यह क्या पुन: प्रज्वलित नहीं हो जायेगी?
आखिर उसने पग-पग कर अपनी प्रथम पतन की कहानी बता उसके पीछे के विचारों का निष्कर्ष भी बता दिया। अन्त में उसने पूछा, "यह आतिशबाजी का पलीता है। एक बार जल उठा था, अब बुझ गया प्रतीत होता है। क्या यह बुझा नहीं रह सकता?"
शीलवती ने कुछ देर तक आखें मूंद विचार किया और फिर कहा,"असम्मव नहीं, कठिन अवश्य है। इसके लिए त्याग, तपस्या करने की आवश्यकता है। प्रश्न यह है कि कर सकोगी क्या?"
"यदि बीच में दम टूट गया तो क्या होगा?"
''तब गिर पड़ोगी। हाथ-पांव तोड़ लोगी और जीवन भर के लिए अपाहिज बनी रह जाओगी। और यदि अंत तक निभा सकी तो, इस जन्म में यश और कीर्ति का लाभ होगा। अगला जन्म किसी श्रेष्ठ माता-पिता के घर में होगा और आत्मा की स्वाभाविक खोज कर आगे की ओर चल पड़ोगी।"
"तो मै यत्न करूंगी।"
"देखो विमला! विषयों के चिन्तन से ही कामनायें उत्पन्न होती हैं और ये कामनायें ही हैं, जो इस जीवन को फुलझड़ी की भाँति जला डालती हैं। यदि तुम विषयों के चिन्तन से चित्त को पृथक रख सकोगी तो यह कठिन काम नहीं।"
प्रकाशचन्द्र ने दिल्ली जाने से पूर्व विमला का निश्चय सेठजी से बता दिया था। वह इससे सन्तुष्ट थे, साथ ही चिंतित भी। उसकी चिन्ता में कारण यह था कि वह विमला के प्रबन्ध की कोई योजना नही वना सके थे।
कमला को यद्यपि विमला के जन्म का ज्ञान नहीं था; इस पर भी वह इतना तो समझ गयी थी कि उसका सम्बन्ध उसके भाई से बना था और उस सम्बन्ध का परिणाम लड़का विश्वम्भर नाथ है। अब क्यों दोनों मे अनबन है, वह समझ नहीं सकी थी।
यह तो कुछ ही दिनों में स्पष्ट हो गया था कि विमला सेठजी की स्वीकृति से उनके घर में ही रहने का प्रबन्ध कर चुकी है और वह अब एक विधवा का सा जीवन व्यतीत करने का विचार रखती है।
विमला को भी सूरदास की कथा और कमला को उसके प्रति मोह का ज्ञान हो चुका था। कमला अपने चित्त को स्थिर ररवने के लिए जहाँ पिता के कार्यालय में कार्य करती थी, वहाँ वह सूरदास के लिए बने मकान का प्रयोग उस काम के लिए करने लगी थी, जिससे सूरदास की स्मृति बनी रहे और वह अपने चित्त को स्थिर रख सके। नित्य कई सौ रुपया दान-दक्षिणा, अन्न-अनाज में बांटा जाता था। उस रुपये में कमला ने अपने वेतन का आधा रुपया डाल इसी नये मकान में लंगर लगवा दिया। सीता, राम तथा लक्ष्मण की मूर्ति स्थापित कर दी गयी थी और वहाँ नित्य मध्याह्न के समय कोई भी आये उसे भोजन मिलता था।
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- प्रथम परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- : 11 :
- द्वितीय परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- तृतीय परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- चतुर्थ परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :