उपन्यास >> अंधकार अंधकारगुरुदत्त
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गुरुदत्त का सामाजिक उपन्यास
राम ने सरुकी लगायी। 'पाइन एप्पल' ज्यूस का पेय था। लखनऊ में कुछ ऐसा ही मिलता-जुलता पेय उसको पीने को मिला था। तब उसने प्रकाश बाबू से पूछा था, प्रकाश बाबू का कहना था, पीने से मतबल होना चाहिये। नाम-धाम जानने से कुछ सिद्ध नहीं होगा।
आज उसने इसे जानने का यत्न किया। मृदुला ने समझा दिया, "एक फल होता है। उसे अनानास कहते हैं। इधर बम्बई में यह बहुत मिलता है। यह उसका रस है। उसमें चीनी है और ठण्डा पानी है।''
"धन्यवाद बहन।"
मृदुला हंस पड़ी। हंसते हुए पूछने लगी, "धन्यवाद किसलिये?''
"तुमने मेरी आंखों के अभाव को मिटाने का यत्न किया है। यह सब कुछे मैं इसके स्वाद के साथ स्मरण रखूंगा और इस विषय में आंख वालों की समानता का दम भरूंगा।''
इस समय तारकेश्वरी आयी तो पूछने लगी, "राम! क्या पूछ रहे हो मृदुला से?"
"यही कह रहा था कि जो कोई मेरे किसी प्रश्न का विस्तार से उत्तर देता है वह मेरी आंखों के अभाव को कम करने वाला सिद्ध होता है और मैं उसको ईश्वर का स्वरूप मानता हूं।''
''हां, यह तो है। देखो भैया। अभी तक यह घर एक स्त्री का घर था। यहां केवल स्त्रियां ही रहती हैं। अब तुम आये हो तो एक-आध पुरुष भी रखना पड़ेगा। कोई उपयुक्त लड़का ढूंढा जायेगा तब वह तुम्हारी आंखों में पुरुषों की दृष्टि भी भरने का यत्न करेगा।
"यहां भोजन का समय डेढ़ बजे है और अभी ग्यारह बजे हैं। यदि कुछ खाने की इच्छा हो तो कुछ पहले भी आ सकता है।"
''नहीं मां। कुछ ऐसी आवश्यकता नहीं। अल्पाहार तो उस उड़न खटोले में ही हो गया था।"
''हां, तो ठीक है। धनवती आज सायंकाल की गाडी से चढ़कर कल रात ग्यारह बजे यहां पहुंच सकेगी।"
''जब वह आ जायगी तो फिरकिसी पुरुष को इस धर में लाने की आवश्यकता नहीं होगी। मां अपने बच्चे की देखभाल कर सकेगी।
"राम को ले जाकर बाहर घुमाने की भी तो आवश्यकता होगी।
सूरदास चुप कर रहा। वह सुन्दरदास का अभाव अनुभव करने लगा था।
प्रियवदना इस राम के विषय में जानने के लिये बहुत उत्सुक थी। उत्सुकता का आरम्भ तो तीन दिन पहले हरिद्वार से आने वाले तार से ही हुआ था, परन्तु वह अभी तक चुप थी। अब एक सुन्दर, परन्तु चक्षुविहीन युवक को बूआ के साथ आते देखवह अपनी उत्सुकता को मन में छुपा रुखने में कठिनाई अनुभव करने लगी। वह उत्सुकता से मध्याह्न भोजन के समय की प्रतीक्षा में थी। वही समय होता था जब बूआ भतीजी में अपने-अपने विषय की बातें होती थीं।
तारकेश्वरी सूरदास को आराम करने के लिये और मृदुला को सतर्क रहने के लिये कह नीचे दूकान पर चली गयी वहां उस दुकान के दोनों क्रय और विक्रय विभागों का निरीक्षण किया और सन्तोष अनुभव कर ऊपर जाने लगी तो प्रियवदना ने पूछ लिया, "आप मध्याह्वोत्तर भी आ सकेंगी अथवा नहीं?"
"आऊंगी और यदि तुमने आराम करना हो तो कल प्रात: सायं दोनों समय का काम भी समेट सकूंगी।"
''नहीं मुझे थकावट नहीं है। मैं तो आपके इस राम के विषय में जानने के लिये उत्सुक हूँ।"
"सत्य? तुमको भोजन के समय इसका परिचय प्राप्त करवा दूंगी।"
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- प्रथम परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- : 11 :
- द्वितीय परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- तृतीय परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :
- चतुर्थ परिच्छेद
- : 2 :
- : 3 :
- : 4 :
- : 5 :
- : 6 :
- : 7 :
- : 8 :
- : 9 :
- : 10 :