लोगों की राय

उपन्यास >> अंधकार

अंधकार

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16148
आईएसबीएन :000000000

Like this Hindi book 0

गुरुदत्त का सामाजिक उपन्यास

"पर ऐसा समझ तो आता नहीं। अनेंकों ने कई अभाव अपने प्रमुत्व से दूर कर दिये हैं। कई चक्षुविहीनों को चक्षु भी दिला दिये हैं तो बताओ कि भगवान् से तो मनुष्य ही अधिक अनुग्रह कर रहा है?''

"वह भी उसकी कृपा से ही तो कर रहा है। उसके पास अपने चक्षु नहीं होते तो दूसरों को कैसे दिलाता?''

"वाह! यह खूब। भैया, अब तुम यहां आये हो तो देखोगे कि मनुष्य ने क्या कुछ वार दिया है।"

''बिना उसकी कृपा के कैसे देख लूंगा?''

''बूआ।'' प्रियवदना ने एकाएक सूरदास से बात बंद कर तारकेश्वरी को सम्बोधन कर कहा, "यहां एक सर्जन डाक्टर कोपलविच आए हुए हैं। वह आंखों के आपरेशन के विशेषज्ञ माने जाते हैं। कुछ दिन हुए, बम्बई के फ्री प्रैस जर्नल में उसके विषय में कुछ लिखा था। भैया को उसे दिखा दो। कौन जाने, भैया के भगवान् को वह मात कर दें।"

तारकेश्वरी गम्भीर हो गयी। उसका ध्यान प्रियवदना के नास्तिक्य से हट कर डाक्टर की बात पर विचार करने में लग गया। पहले वह उसके विचारों पर मुस्करा रही थी।

एकाएक वह मेज पर से उठी और दूसरे कमरे में जा टेलीफ़ोन करने लगी। उसे स्मरण आ गया था कि डाक्टर ताजमहल होटल में ठहरा हुआ था। वह जानने के लिये टेलीफ़ोन करने लगी थी कि डाक्टर है अथवा कहीं चला गया है?

टेलीफ़ोन कर सन्तोष भरी मुद्रा से वह लौटी और बोली, "प्रियम् डाक्टर अभी यहीं ठहरा है। आज वह पूना गया हुआ है। सायकाल उसके लौट आने की बात है।"

"मां। वह क्या करेगा?'' सूरदास का प्रश्न था।

"ईश्वर की कृपा हुई तो वह तुम्हें दृष्टि दिला सकता है। उसने कई अन्धों को ठीक किया है, ऐसा समाचार पत्र में छपा था।"

''बूआ! डाक्टर की कृपा नहीं और उसकी, जिसे किसी ने देखा नहीं, की कृपा का ढोल पीट रही हो।" प्रियवदना का कहना था।

तारकेश्वरी डर रही थी कि यह सूरदास इस नास्तिक के प्रदर्शन से कहीं घबरा न उठे। इस कारण उसने प्रियवदना को अंगुली होंठो पर रखकर संकेत भी करना चाहा, परन्तु वह सूरदास के मुख पर देख रही थी। वह उसकी सुन्दर आरके पर मुग्ध हो रही थी।

भोजन परस दिया गया। दाल भात पहले रखा गया था। तारकेश्वरी ने सूरदास को कहा, "भैया! चम्मच से खाओगे अथवा हाथ से?''

''चम्मच से खाने का अभ्यास नहीं। मां, एक बार आप बता दीजिये कि क्या खाने को है, कहां कहो रखा है और किसमें खाना है?"

तारकेश्वरी ने मृदुला को एक नैपकिन लाने को कहा और उसे सूरदास की गरदन पर लपेट दिया। साथ ही उसको चावल की प्लेट, सब्जी, साग के डोंगे तथा चटनी, अचार जो प्लेट में रखे थे, बता दिये। सूरदास ने चावलों को टोह कर देखा और तदनन्तर उनमें दाल तथा साग उंडेल कर हाथ से मिलाने लगा।

बम्बई में यह किसी प्रकार की नवीन बात नहीं थी। प्राय: दक्षिणी वैसे ही मिलाकर खाते हैं। यह विस्मय की बात न होती यदि सूरदास के खाते समय कुछ दाल, भात खिंड जाता। इसी कारण तारकेश्वरी ने नैपकिन उसके गले से लपेट दिया था। नैपकिन पर्याप्त बड़ा था और वह उसके घुटनों तक पहुंचा हुआ था। इस पर भी सूरदास को इस प्रकार खाने का अम्यास था। वह ऐसे ढंग से खाता रहा कि एक दाना भी उसके प्लेट तथा मुख से बाहर नहीं गिरा।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. प्रथम परिच्छेद
  2. : 2 :
  3. : 3 :
  4. : 4 :
  5. : 5 :
  6. : 6 :
  7. : 7 :
  8. : 8 :
  9. : 9 :
  10. : 10 :
  11. : 11 :
  12. द्वितीय परिच्छेद
  13. : 2 :
  14. : 3 :
  15. : 4 :
  16. : 5 :
  17. : 6 :
  18. : 7 :
  19. : 8 :
  20. : 9 :
  21. : 10 :
  22. तृतीय परिच्छेद
  23. : 2 :
  24. : 3 :
  25. : 4 :
  26. : 5 :
  27. : 6 :
  28. : 7 :
  29. : 8 :
  30. : 9 :
  31. : 10 :
  32. चतुर्थ परिच्छेद
  33. : 2 :
  34. : 3 :
  35. : 4 :
  36. : 5 :
  37. : 6 :
  38. : 7 :
  39. : 8 :
  40. : 9 :
  41. : 10 :

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book