उपन्यास >> शोध शोधतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास
इस दौरान, हारुन ने मुझे आरजू के दो ख़त सौंपे! दोनों स्तों में लिफ़ाफ़ा खुला हुआ था। इसका मतलब यह हुआ कि हारुन ने मेरी दोनों विट्ठियाँ खोलकर पढ़ी थीं। उसने मेरा खत क्यों पढ़ा, इस बारे में मैंने उससे कोई सवाल नहीं किया। हारुन ने भी कोई कैफियत नहीं दी, मानो यह नितान्त स्वाभाविक बात हो! पति होने के नाते हारुन; मुझे लिखा गया कोई भी खत, मुझसे पहले खोलने और पढ़ने का अधिकार है। उसके बाद, अगर उसका मन हुआ, तो वह मुझे भी पढ़ने के लिए थमा देगा और मन नहीं हुआ, तो नहीं देगा। आरजू ने एक ही जैसा खत इस घर के और हारुन के दफ्तर के पते पर पोस्ट किया था। इस घर के ठिकाने पर आमतौर पर मेरा कोई खत नहीं आता। हाँ, कभी-कभी पापा या माँ या नूपुर मुझसे फोन पर बात कर लेते हैं, बस्स! मेरे दोस्त कैसे हैं, उन लोगों की खोज-खबर मैं कभी दरयाफ्त नहीं करती, क्योंकि अन्दर-ही-अन्दर मैं डरती रहती हैं। मझे इस बात का हमेशा डर लगा रहता है कि फोन पर मैं जिससे भी बात करती हूँ, हारुन कान लगाकर सुन रहा होता है। आरजू ने ख़त में मेरी खैरियत पूछी थी और यह भी पूछा था कि मैं अपने संगी-साथियों को भूल क्यों गई हूँ। उसने एक और ख़बर भी दी है। सुभाष का भाई, सुजीत मर गया। वह क्यों मर गया, उसे क्या हुआ था, इसका हवाला उसने नहीं दिया था। चन्दना और नादिरा मज़े में हैं, सब मुझे याद करती हैं। मेरे छूट जाने के बाद, अब उनका अड्डा, पहले की तरह नहीं जमता। मेरा यूँ दूर चले आना, उसे और बाकी साथियों को अच्छा नहीं लग रहा है। यही सब...। उसके अब्बू के दफ्तर में उसे भी एक नौकरी मिल गई है, उसने यह खबर भी दी थी। सुभाष पागलों की तरह, नौकरी खोज रहा है। मेरी माँ से उसकी भेंट हुई थी। वे भी मेरे लिए काफ़ी दुःखी थीं, बस, इतना ही...। माँ दुःखी क्यों थीं, इस बारे में कुछ नहीं लिखा। उसने यह भी लिखा था-अगर मैं चाहूँ, तो तुम्हारी ससुराल भी, तुमसे मिलने आ सकता हूँ। मगर मैं क्यों जाऊँ? तुमने कभी बुलाया नहीं। हारुन भाई ने भी कभी आने को नहीं कहा। तुम दोनों ही हम सबको भूल गए। तुम्हारे यहाँ जब भी मैं फोन करता हूँ। फोन किसी और के घर में चला जाता है...?
वह ख़त मैं दो-दो बार पढ़ गई। इस ख़त के किसी वाक्य या शब्द में कहीं यह इशारा तो नहीं कि आरजू से कभी मैं चोरी-चोरी मुहब्बत करती थी। उसके साथ सोती थी। जिस वक़्त मैं उसका ख़त पढ़ रही थी, हारुन मेरे क़रीब ही खड़ा था। उसकी निगाहें मेरे चेहरे पर गड़ी हुई थीं। वह शायद यह पढ़ने की कोशिश कर रहा था कि मेरे चेहरे पर कोई भाव-परिवर्तन होता है या नहीं, कहीं मेरी आँखें तो नहीं भर आईं; मेरे होंठ मुस्करा तो नहीं रहे हैं। मैं यथासम्भव निर्विकार मुद्रा में खत पढ़ती रही।
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