उपन्यास >> शोध शोधतसलीमा नसरीन
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तसलीमा नसरीन का एक और पठनीय उपन्यास
हारुन के कारोबार में इतने बड़े धक्के के बाद, सासजी नमाज अदा करने में काफ़ी ज़ोर-शोर से जुट गईं। नमाज के साथ फरज़ तो था ही। अब वे सुन्नत और नफ़र भी अदा करने लगी। मैं हस्बेमामूल घर-गृहस्थी के धर्म निभाने लगी, उन्होंने मेरे कामकाज के धर्म के साथ, एक और धर्म सौंप दिया। मैं नियमित रूप से नमाज़ अदा करूँ और हारुन के लिए दुआ करूँ।
मैंने गर्दन खुजलाते हुए, जुबान काटकर कहा, 'नमाज तो मुझे...'
मैंने अपना वाक्य परा भी नहीं किया था कि मझे नमाज पढना ठीक तरह नहीं आता, इससे पहले ही सासजी कह उठीं, 'औरत होकर, नमाज़ नहीं पढ़तीं, यह कैसी बात?'
हारुन ने ख़ुद मेरी हतबुद्ध हालत देखी। मैंने उसकी तरफ़ भी असहाय नज़रों से देखा। मुझे उम्मीद थी कि वह मुझे इस स्थिति से रिहाई दिलाने के लिए आगे बढ़ आएगा। वह घरवालों को समझाएगा कि नमाज पढ़ने के लिए झूमुर से जोर-जबर्दस्ती करने की जरूरत नहीं है। लेकिन हारुन ने कुछ नहीं कहा। अगले दिन शाम को ही, अपने दफ्तर के पिउन के हाथ, उसने नमाज-पाठ की एक पुस्तिका भेज दी। बस, उसी दिन से शुरू! अब मुझे सुरा की आयतें रटकर, अपनी सास जी के साथ पाँचों वक़्त के नमाज़ के लिए खड़ा होना पड़ता था।
मुनाज़त से पहले, सासजी ने कहा, 'हारुन के लिए दुआ करो। दुआ करो कि उसका शरीर, सेहत और कारोबार ठीकठाक रहे। उसे बहिश्त नसीब हो।'
अल्लाह के आगे यूँ हाथ फैलाकर कुछ माँगना, मेरी आदत में नहीं है। लेकिन हर रोज़ हारुन के सुख, सेहत, वित्त-वैभव के लिए प्रार्थना करते-करते अब मुझे सिर्फ दूसरों की मंगल-कामना करने की आदत हो गई है! अब भी, मुझे अपने लिए माँगना नहीं आया।
दिन यूँ ही गुजरते रहे।
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